स्वार्थ रहित व्यवहार.



स्वार्थ रहित व्यवहार.

माताओं से मेरी एक प्रार्थना है| आप यहाँ तीर्थ में आई है और आपका उद्देश्य आत्मा का कल्याण के लिए ही होगायहाँ केवल धर्म, अर्थ, मोक्ष इन तीनो की ही उपलब्धि होती है| वे सात्विक हैं जो आत्मा के कल्याण के लिए आते है| वे राजस है जो धर्म की द्रष्टी से आते है| तीर्थ तीन अर्थ वाला है| कोई स्नान करके लाभ उठाते है और कोई वहाँ मल-मूत्र त्याग कर पाप कमाते हैतीर्थो में जैसे थोडा-सा भी पुण्य महान होता है, वैसे ही पाप का भी महान फल होता है| कई माताएँ यहाँ नियम लेती है, ये सब बाते अच्छी है| पर यहाँ आकर एक का ही त्याग करे. जिस एक के करने से ही बेडा पार हो जाये और एक ही व्रत धारण करे, जिसके करने से बेडा पार हो जाए| वर्तमान में जिस मार्ग में चल रही है, वह तो नरक का मार्ग है, प्रवृति मार्ग है| जनक प्रवृति मार्ग में होते हुए भी  निव्रती मार्गी है| जो भी कार्य स्वार्थ रहित किया जाता है, वही निवृति है| भगवान कहते है-
जिस पुरुष के अन्तकरण में  मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि संसारिक पदार्थों में और कर्मो में लिपायमान नही होती, वह पुरुष इन सब लोको को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बधँता है| (गीता १८|१७)
हे महाबाहो! गुण-विभाग और कर्म-विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे है, ऐसा समझकर उनमे आसक्त नहीं होता| (गीता ३|२८) 
परन्तु अपने अधीन किये हुए अंत:करण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अंत:करण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है
अंत:करण की प्रसन्नता होने पर साधक के सम्पूर्ण दुखो का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब और से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभांती स्थिर हो जाती है|  (गीता २|६४-६५)

इसकी पहचान यही है कि उसमे रागद्वेष नहीं होते और न उससे पाप ही होता है| वह सदा के लिए परमेश्वर में स्थित हो जाता है, भोजन राग-द्वेष छोड़कर करता है| ईश्वर के लिए चलता है, सोता है, दान देता है| जैसे एक आदमी बाढ़ में सेवा में गया तो उसका उद्देश्य केवल बाढ़ के लिए है| वह भी इसी तरह भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्य करता है| यदि भोजन नहीं करूँगा तो मर जाऊंगा, फिर भजन कैसे करूँगा| इसी के लिए, ईश्वर के दर्शन के लिए जीता हैशबरी की तरह ईश्वर के लिए जिनका जीना है, उनका सभी कार्य ईश्वर के लिए ही है| माता, बहने जो कार्य करती है, वह प्रभु के लिए करे| यह बात सबके लिए ही है| अपना लाभ सोच कर जो कार्य किया जाता है, वही पतन का कार्य हैयह सोचे की किसी को भी लाभ है, वह ईश्वर को लाभ है| ईश्वर का मार्ग बिलकुल उल्टा है| आज कोई गाली दे तो सुनकर दुःख होता है, प्रसंशा से प्रसन्नता होती है, यह प्रवृति मार्ग है, बस इसका उल्टा ईश्वर का मार्ग हैअपने साथ में बुराई करे, उसके साथ भलाई करो| अपने पास की वस्तु को पहले दूसरो को दो| अच्छी चीज दूसरो को दो, बची हुई अपने लिए रखो|


यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेस्ठ पुरुष सब पापो से मुक्त हो जाते है और जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, तो वे पाप को ही खाते है| (गीता ३|१३)

ईश्वर की सेवा के लिये ही भोजन बनाओ| वृद्धो को, अतिथि, बालकों को देकर ही भोजन करोबची हुई अमृत और बचाई हुई विष है| अलग रखकर पति को भोजन कराये और घटिया सामग्री अतिथि को दे तो पति को ऐसा भोजन करना विष है|  बचाई हुई चीज विष के सामान है, बची हुई अमृत के समान है, ऐसी ही वस्तुओ, सब बातों में यही बात है|  अच्छी चीज लेने की इच्छा ही नरक में ले जाने वाली है|  सबको सोचना चाहिये| जो आम मेरे लिए ख़राब है सबके लिए ख़राब है| नौकरों को देने के लिए भी ख़राब है| अच्छे पदार्थ दूसरों के लिए, बचे हुए अपने लिए है| जो पदार्थ ख़राब हो गए, वे तो फेकने योग्य है ऐसे व्यवहार से घर में रहने वाली सब स्त्रियाँ और ईश्वर की भी आँख खुलेंगी कि यह तो उत्तम स्त्री है| ईश्वर और देवताओं की बात तो अलग हैं, नरक के प्राणी भी नरक में बुरी स्त्री को नहीं रखना चाहते, उसके लिए कही ठौर नहीं है| जिससे सुख  मिलता है, उससे प्रेम करते हैबुरे आदमी को कोई भी रखने को तैयार नहीं|  हमको ऐसी योग्यता प्राप्त करनी चाहिये कि हम जहाँ जाये वहीँ आने की पुकार हो| देवता भी उसको बुलाना चाहते हैकेवल इतना ही करना है कि वर्तमान में जो व्यवहार कर रही हो, उसे उलट दो तो वहाँ लिखे हुए ख़त भी उलटे कर दिए जायेंगे, यानी प्रारब्ध सुधर जायेगा, फिर आपका बेडा पार है| नीयत ही अच्छी होनी चाहिये, नीयत यदि बुरी है तो अच्छे कर्म भी आपके लिए ख़राब है| लाक्षा-भवन में जलाने के लिए राजा युधिष्ठिर को दान देने के बहाने बारनावत भेजा था पर नियत ठीक नहीं थी| वह नीयत उनके लिए ही ख़राब हुई| जो कोई दूसरे का हित करता है, वह अपना ही हित करता है| जो दुसरे का अपकार करता है, वह अपना ही नुकसान करता है| घर में लड़ाई हो, कोई गाली दे, तो बदले में गाली न दे, यह उत्तम मार्ग है| जिस दिन नीयत बदल जाएगी, प्रारब्ध भी बदल जायेगा| उसी दिन भगवान तैयार है|


विलम्ब इसलिये है क्योकि नीयत अच्छी नहीं है| यदि भगवान को चाहते है तो फिर कर्म भी वैसा ही होना चाहिये| यह कार्य करना बहुत सरल है| कहावत है कि कौड़ियों में हाथी मिल रहा है| यहाँ तो कौड़ियों की भी जरुरत नहीं है, वह ईश्वर हाथी से भी महान हैयह नियम कर ले की घर में कोई गाली दे तो उससे लड़ाई नहीं करुँगी, न रुठुंगी और न प्रतिकार करुँगी, उसको सह लूंगी, यदि यह नियम लिया जाये तो नए पाप नहीं बढ़ सकते| रहे पुराने पाप, उनके लिए स्वार्थ को त्यागकर दूसरों की सेवा करनी चाहिये तथा उदारता के साथ सबकी सेवा करके प्रसन्न होना चाहिये| भगवान ही आ गए है, इस भाव से रसोई बनती है, उसका कल्याण हो जाता है| वह  मानती है कि आज मेरा अहोभाग्य हैअतिथि रूप में भगवान आये है| ऐसा भाव रखने वाले के यहाँ कभी-न-कभी प्रभु अतिथिरूप में आ जाते है| संसार में सभी जीते है| एक रोज मरना है ही और कोई पदार्थ मरने के साथ नहीं जायेगा, इसलिए इन सब पदार्थो को भगवान के लिए ही खर्च कर देना चाहिये| भगवान के मिलने के लिए विशेष तैयारी की आवश्यकता नहीं है| एक अच्छे पुरुष के लिए भी कितनी तैयारी करते है| प्रभु तो प्रेम की तैयारी से ही आ जाते है| प्रेम होना चाहिये|
जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र,पुष्प,फल,जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्ध बुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रगट होकर प्रीति सहित खाता हूँ| (गीता ९|२६)
जिससे हमारी भेट हो उसी को भोजन कराये तो फिर उससे परमात्मा मिलते है|


एक बार बनवास में पाण्डव जल के अभाव में व्याकुल हो गए| महाराज युधिस्टर ने क्रमश: चारो भाईओ को जल लाने के लिए भेजा| सरोवर पर एक यक्ष था| उसने उनसे प्रश्न किया किन्तु उन लोगो ने उसकीअवहेलना करके जल लेने का प्रयास किया एवं यक्ष की माया से मृत हो गए| अन्त में भाइयों के न लौटने पर महाराज युधिस्टर सरोवर पर गए एवं यक्ष के प्रश्नों का उत्तर देकर उसे संतुस्ट किया| यक्ष ने प्रसन्न होकर महाराज से कहा की मैं आपके उत्तर से संतुस्ट हूँ और आपके एक भाई को जीवित कर सकता हूँ| युधिस्टर जी ने कहा की यदि आप एक को ही जीवित करना चाहते है तो नकुल को जीवित कर दे| यक्ष ने कहा भीम और अर्जुन जिनकी सहायता से तुम दुर्योधन को जीत सकते हो, उन्हें छोड़ कर तुम नकुल को क्यों जीवित करना चाहते है?  मैं तुम्हे सावधान करके पुन: विचार करने का अवसर देता हूँ| युधिस्टर ने कहा  मैं माता कुन्ती का पुत्र हूँ, नकुल के जीवित रहने से मेरी माता माद्री की सन्तति भी कायम रहेगी, अत: आप नकुल को जीवित कर दे| यक्ष उनके भा को देख कर प्रसन्न हो गया और चारों भाइयों को जीवित कर दिया|

माताओं से यही कहना है कि ऐसा व्यवहार करना चाहिये| कुन्ती देवी ने कितना उपकार किया, ब्राह्मण परिवार की रक्षा के लिये अपने लड़के भीम को राक्षस के सामने मरने के लियें भेज दिया| सोचना चाहिये, आज हमारे यहाँ कोई प्लेग की बीमारी आ जाती है तो वहाँ कोई सोना भी नहीं चाहताकुन्ती जैसी स्त्री और माता कोई ही होगी जो ऐसे काम के लिए उत्साह दिलाये| सम्पति में तो सभी शामिल हो जाते हैं विपत्ति में शामिल होने में ही विशेषता है| आपति में शामिल होने वाले को ही भगवान याद करते है| माताओं को देवी कुन्ती का और हम लोगो को महाराज युधिस्टर का अनुकरण करना चाहिये| 

(श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजीसाधन की आवश्यकता पुस्तक से)
 

 


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