वास्तव में भगवान् मिले हुए ही हैं। आपकी सांसारिक इच्छा ही उनको रोक रही है। आप रुपयों की इच्छा करते हो, भोगों की इच्छा करते हो तो भगवान् उनको जबर्दस्ती नहीं छुड़ाते। अगर आप सांसारिक इच्छाएँ छोड़कर केवल भगवान् को ही चाहो तो आपको कौन रोक सकता है? आपको बाधा देने की किसी की ताकत नहीं है। अगर आप भगवान् के लिये व्याकुल हो जाओ तो भगवान् भी व्याकुल हो जायँगे। आप संसार के लिये व्याकुल हो जाओ तो संसार व्याकुल नहीं होगा। आप संसार के लिये रोओ तो संसार राजी नहीं होगा। पर भगवान् के लिये रोओ तो वे भी रो पड़ेंगे।
बालक सच्चा रोता है या झूठा, यह माँ ही समझती है। बालक के आँसू तो आये नहीं, केवल ऊँ-ऊँ करता है, तो माँ समझ लेती है कि यह ठगाई करता है| अगर बालक सच्चाई से रो पड़े, उसको साँस ऊँचे चड जायँ तो माँ सब काम भूल जायगी और चट उसको उठा लेगी। अगर माँ उस बालक के पास न जाय तो उस माँ को मर जाना चाहिये! उसके जीने का क्या लाभ| ऐसे ही सच्चे हृदय से चाहने वाले को भगवान् न मिलें तो भगवान् को मर जाना चाहिये!
एक साधु थे। उनके पास एक आदमी आया और उसने पूछा कि भगवान् जल्दी कैसे मिलें? साधु ने कहा कि भगवान् उत्कट चाहना होने से मिलेंगे। उसने पूछा कि उत्कट चाहना कैसी होती है? साधु ने कहा कि भगवान् के बिना रहा न जाय। वह आदमी ठीक समझा नहीं और बार-बार पूछता रहा कि उत्कट चाहना कैसी होतीहैं? एक दिन साधु ने उस आदमी से कहा कि आज तुम मेरे साथ नदी में स्नान करने चलो। दोनों नदी में गये और स्नान करने लगे। उस आदमी ने जैसे ही नदी में डुबकी लगायी, साधु ने उसका गला पकड़कर नीचे दबा दिया। वह आदमी थोड़ी देर नदी के भीतर छटपटाया, फिर साधु ने उसको छोड़ दिया। पानी से ऊपर आने पर वह बोला कि तुम साधु होकर ऐसा काम करते हो| मैं तो आज मर जाता| साधु ने पूछा कि बता, तेरे को क्या याद आया? माँ याद आयी, बाप याद आया या स्त्री-पुत्र याद आया? वह बोला कि महाराज, मेरे तो प्राण निकले जा रहे थे, याद किसकी आती? साधु बोले कि तुम पूछते थे कि उत्कट अभिलाषा कैसी होती है, उसी का नमूना मैंने तेरे को बताया है। जब एक भगवान् के सिवाय कोई भी याद नहीं आयेगा और उनकी प्राप्ति के बिना रह नहीं सकोगे, तब भगवान् मिल जायँगे। भगवान् की ताकत नहीं है कि मिले बिना रह जायँ।
भगवान् कर्मों से नहीं मिलते। कर्मों से मिलने वाली चीज नाशवान् होती है। कर्मों से धन, मान, आदर, सत्कार मिलता है। परमात्मा अविनाशी हैं। वे कर्मों का फल नहीं हैं, प्रत्युत आपकी चाहना का फल है। परन्तु आपको परमात्मा के मिलने की परवाह ही नहीं है, फिर वे कैसे मिलेंगे? भगवान् मानो कहते हैं कि मेरे बिना तेरा काम चलता है तो मेरा भी तेरे बिना काम चलता है। मेरे बिना तेरा काम अटकता है तो मेरा काम भी तेरे बिना अटकता है। तु मेरे बिना नहीं रह सकता तो मैं भी तेरे बिना नहीं रह सकता।
आप में परमात्म-प्राप्ति की जोरदार इच्छा है ही नहीं। आप सत्संग करते हो तो लाभ जरूर होगा। जितना सत्संग करोगे, विचार करोगे, उतना लाभ होगा—इसमें सन्देह नहीं है। परन्तु परमात्मा की प्राप्ति जल्दी नहीं होगी। कई जन्म लग जायँगे, तब उनकी प्राप्ति होगी। अगर उनकी प्राप्ति की जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान् को आना ही पड़ेगा। वे तो हरदम मिलने के लिये तैयार हैं! जो उनको चाहता है, उसको वे नहीं मिलेंगे तो फिर किसको मिलेंगे? इसलिये ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ कहते हुए सच्चे हृदय से उनको पुकारो।
सच्चे हृदय से प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है।
तो भक्तवत्सल कान में, वह पहुँच झट ही जाय है॥
भक्त सच्चे हृदय से प्रार्थना करता है तो भगवान्को आना ही पडता है। किसी की ताकत नहीं जो भगवान् को रोक दे। जिसके भीतर एक भगवान् के सिवाय अन्य कोई इच्छा नहीं है, न जीने की इच्छा है, न मरने की इच्छा है, न मान की इच्छा है, न सत्कार की इच्छा है, न आदर की इच्छा है, न रुपयों की इच्छा है, न कुटुम्ब की इच्छा है, उसको भगवान् नहीं मिलेंगे तो क्या मिलेगा? आप पापी हैं या पुण्यात्मा हैं, पढ़े-लिखे हैं या अपढ़ हैं, इस बात को भगवान् नहीं देखते। वे तो केवल आपके हृदय का भाव देखते हैं—
रहति न प्रभु चित चूक किए की ।
करत सुरति सय बार हिए की ॥ (मानस, बाल॰२९/३)
वे हृदय की बात को याद रखते हैं, पहले किये पापों को याद रखते ही नहीं! भगवान् का अन्तःकरण ऐसा है, जिसमें आपके पाप छपते ही नहीं! केवल आपकी अनन्य लालसा छपती है।
भगवान् कैसे मिलें? कैसे मिलें? ऐसी अनन्य लालसा हो जायगी तो भगवान् जरुर मिलेंगे, इसमें सन्देह नहीं है। आप और कोई इच्छा न करके, केवल भगवान् की इच्छा करके देखो कि वे मिलते है कि नहीं मिलते हैं| आप करके देखो तो मेरी भी परीक्षा हो जायगी कि मैं ठीक कहता हूँ कि नहीं| मैं तो गीता के बल पर कहता हूँ। गीता में भगवान् ने कहा है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (४/११( ‘जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ।’ हमें भगवान् के बिना चैन नहीं पड़ेगा। हम भगवान् के बिना रोते हैं तो भगवान् भी हमारे बिना रोने लग जायँगे! भगवान् के समान सुलभ कोई है ही नहीं! भगवान् कहते हैं—
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ (गीता ८ । १४)
‘हे पृथानन्दन ! अनन्य चित्त-वाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात उसको सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ।’
भगवान् ने अपने को तो सुलभ कहा है, पर महात्मा को दुर्लभ कहा है—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यन्ते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ (गीता ७ । १९)
‘बहुत जन्मों के अन्तिम जन्म में अर्थात् मनुष्य जन्म में ‘सब कुछ परमात्म ही हैं’—इस प्रकार जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।’
हरि दुरलभ नहिं जगत में, हरिजन दुरलभ होय ।
हरि हेर्याँ सब जग मिलै, हरिजन कहिं एक होय ॥
भगवान् के भक्त तो सब जगह नहीं मिलते, पर भगवान् सब जगह मिलते हैं। भक्त जहाँ भी निश्चय कर लेता है, भगवान् वहीं प्रकट हो जाते हैं—
आदि अंत जन अनंत के, सारे कारज सोय ।
जेहि जिव ऊर नहचो धरै, तेहि ढिग परगट होय ॥
प्रह्लादजी के लिये भगवान् खम्भे में से प्रकट हो गये—
प्रेम बदौं प्रहलादहि को, जिन पाहन तें परमेस्वरु काढे ॥ (कवितावली ७/१२७)
भगवान् सब के परम सुहृद हैं। वे पापी, दुराचारी को जल्दी मिलते हैं। माँ कमजोर बालक को जल्दी मिलती है। एक माँ के दो बेटे हैं। एक बेटा तो समय पर भोजन कर लेता है, फिर कुछ नहिं लेता और दूसरा बेटा दिन भर खाता रहता है। दोनों बेटे भोजन के लिये बैठ जायँ तो माँ पहले उसको रोटी देगी जो समय पर भोजन करता है; क्योंकि वह भूखा उठ जायगा तो शाम तक खायेगा नहीं। दूसरे बेटे को माँ कहती है कि तु ठहर जा; क्योंकि वह तो बकरी की तरह दिन भर चरता रहता है। दोनों एक ही माँ के बेटे हैं, फिर भी माँ पक्षपात करती है। इसी तरह जो एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं चाहता, उसको भगवान् सबसे पहले मिलते हैं; क्योंकि वह भगवान् को अधिक प्रिय है। वह एक भगवान् के सिवाय अन्य किसी को अपना नहीं मानता। वह भगवान् के लिये दुःखी होता है तो भगवान् से उसका दुःख सहा नहीं जाता।
कोई चार-पाँच वर्ष का बालक हो और उसका माँ से झगडा हो आय तो माँ उसके सामने ढीली पड़ जाती है। संसार की लड़ाई में तो जिसमें अधिक बल होता है, वह जीत जाता है, पर प्रेम की लड़ाई में जिसमें अधिक प्रेम होता है, वह हार जाता है। बेटा माँ से कहता है कि मैं तेरी गोद में नहीं आऊँगा, पर माँ उसकी गरज करती है कि आ जा, आ जा बेटा! माँ में यह स्नेह भगवान् से ही तो आया है। भगवान् भी भक्त की गरज करते हैं। भगवान् को जितनी गरज है, उतनी गरज दुनिया को नहीं है। माँ को जितनी गरज होती है, उतनी बालक को नहीं होती। बालक तो माँ का दूध पीते समय दाँतों से काट लेता है, पर माँ क्रोध नहीं करती। अगर वह क्रोध करे तो बालक जी सकता है क्या? माँ तो बालक पर कृपा ही करती है। ऐसे ही भगवान् हमारी अनन्त जन्मों की माता है। वे भक्त की उपेक्षा नहीं कर सकते। भक्त को वे अपना मुकुट-मणि मानते हैं—‘मैं तो हूँ भगतन को दास, भगत मेरे मुकुटमणि।“ भक्तों का काम करने के लिये भगवान् हर-दम तैयार रहते हैं। जैसे बच्चा माँ के बिना नहीं रह सकता और माँ बच्चे के बिना नहीं रह सकती, ऐसे ही भक्त भगवान् के बिना नहीं रह सकता और भगवान् भक्त के बिना नहीं रह सकते।
‘मानवमात्र के कल्याण के लिये’ पुस्तक से
गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित.
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