दुर्योधन को किसी शत्रु द्वारा बंदी बनाये जाने की खबर सुनकर धर्मराज युधिष्टिर अत्यंत व्याकुल हो उठे| उन्होंने भीम से दुर्योधन को छुड़ा लाने को कहा| भीम इस आदेश को सुनकर नाराज हो गया, बोला, “भैया, आप मुझे ऐसी आज्ञा दे रहे हैं, जो आपको ही शोभा नहीं देती हैं| आप मुझे उस पापी को छुड़ा लाने को कह रहे हैं जिसके कारण हम आज इस विपदावस्था में हैं| जिस अधम ने न्याय-अन्याय,नीति-अनीति का विचार किये बिना हमें कही का न छोड़ा हैं, जिस पापात्मा ने अपनी भाभी द्रोपदी का भरी सभा में अपमान किया हैं, उस नारकीय कीड़े के प्रति इतनी मोह-ममता रखते हुए आपको कुछ भी ग्लानी नहीं होती, भाई जी|”
भीम के कटु और रोष भरे शब्द सुनकर युधिष्टिर चुप हो गये और उन्होंने सिर नीचा कर लिया| अर्जुन भी वहां उपस्थित था| उसे यह समझते देर न लगी की युधिष्टिर आंतरिक वेदना से व्याकुल हैं| बिना कुछ बोले अपना गांडीव धनुष्य उठाकर वह, वहां से चला गया और थोड़ी ही देर में उसने लौटकर, दुर्योधन को मुक्त करने तथा शत्रु का वध करने की खबर युधिष्टिर को सुनायी|
तब धर्मराज भीम से हँसकर बोले, “ भैया! हमारा आपस में वैर हो, भले ही हम मतभेद और शत्रुता रखते हो, फिर भी संसार की दृष्टी में तो हम भाई-भाई हैं| बेशक कौरव १०० और हम पाण्डव ५ होने के कारण अलग अलग हैं, लेकिन वास्तव में हम १०५ हैं| हममें से किसी एक का अपमान, अन्य १०४ लोगो का भी अपमान हैं और यह बात तुम नहीं, अर्जुन ही समझ सकता हैं|”
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