माधवाचार्य जी के जीवन का एक महत्वपूर्ण प्रसंग हैं| जीवन के प्रारम्भिक अवस्था में उनमें तीव्र उत्कंठा जागृत हुई कि उनसे कुछ ऐसा सृजन हो जाये जिससे समाज की भलाई और जन कल्याण का मार्ग प्रसस्त हो जाये| उनका सामान्य जीवन एवं अनिश्चय की स्तिथि के कारण इसकी पूर्ति संभव नहीं थी इसलिये उन्होंने आराधना का मार्ग अपनाया और जप योग में निरत हो गये| माँ गायत्री का अनुष्ठान करने लगे| उन्होंने लगातार सात पुनश्चचरण किये किन्तु उसका कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ|
उनके मन में अब कुशंकाओ ने जन्म ले लिया| इसका एक कारण यह था कि उनके मोहल्ले में एक लक्खी बाबा [गोरख सम्प्रदाय का, जो कमर में घंटी बांधकर चलता हैं] भिक्षाटन के लिए आया करता था| जो छोटी-मोटी तकलीफों जैसे दर्द वगैरह को भभूत देकर ठीक कर देता था| उसे देखकर, इन्हें लगने लगा कि यह लक्खी बाबा अधिक जानकार हैं|
एक दिन उन्होंने, उससे पुछा कि वह किस आधार पर भभूत के द्वारा दर्द ठीक कर देता हैं| उसने बताया कि उनके गुरु ने उन्हें श्री भैरवजी का मन्त्र दिया था तथा साधना बताई थी, जो उसने की और उसी के सहारे वह भभूत देता हैं|
माधव जी ने यह भी पुछा कि उसने साधना कितने दिन की थी?
तीन महीने-उसने बताया|
अब माधव जी के हृदय में श्री भैरव जी की साधना का जूनून आ गया| उन्होंने उस बाबा से साधना कि विधि बताने के लिए कहा| तब बाबा, अपने गुरु के पास माधव जी को ले गया|
उनके गुरु, माधव जी को जानते थे| उन्होंने बहुत ही आदर से बैठाया और बात की| माधव जी ने उन्हें सब बताया और भैरव उपासना की जानकारी के लिए उनसे अनुरोध किया| गुरु जी ने कहाँ, पंडितजी, आप व्यर्थ यहाँ-वहाँ भाग रहे हो, आपने सर्वोत्तम मार्ग चुना हैं, उसी में लगे रहिये परन्तु माधव जी के हृदय में तो कुशंकाओ ने जन्म ले लिया था, वे न माने| अंत में तीन माह की एक साधना उन्होंने , माधव जी को बता दी| घर आकर प्राण-पन से, साधना में लग गये|
समयावधि में ही एक दिन साधना के अंतर्गत उन्हें आवाज सुनाई दी पर कोई दिखाई नहीं दिया|
माधव जी ने पुछा “ कौन बोल रहा हैं और सामने क्यों नहीं आते?
तब यह आवाज आई कि मैं, वहीं हुं जिसकी आप आराधना कर रहे हैं किन्तु आपके सामने नहीं आ सकता|
क्यों?- पंडित जी ने पुछा|
तब भैरवजी ने कहा कि आपने गायत्री की जो आराधना की हैं, उससे, आप में इतना तेज आ गया हैं कि मै उसका सामना नहीं कर सकता| इसलिए आपके पीछे और दूर खड़ा हूँ|
यह सुनकर , पंडित जी ने फिर पुछा कि यदि मेरी पूर्व साधना इतनी प्रभावी हैं तो मुझे उसका फल क्यों नहीं मिला, कृपया यह बता दीजिये?
भैरव जी ने कहा-आपके सात जन्मो के प्रारब्ध [भुगतमान] थे| आपके एक अनुष्टान से एक जन्म का प्रारब्ध क्षीण हुआ हैं| आपने सात अनुष्ठान किये हैं, इसलिए अब सातों जन्म के प्रारब्ध समाप्त हो गये हैं|
यह सुनकर माधव जी ने श्री भैरव जी का आभार प्रगट कर उन्हें विदा कर दिया एवं पुन: गायत्री के अनुष्टान में लग गये|
जैसे ही अनुष्टान पूर्ण हुआ, माँ भगवती गायत्री उनके समक्ष प्रगट हुई तब माधवजी ने, अपनी उत्कंठा के विषय में बताया| माता ने उन्हें आशिर्वाद दिया|
माँ गायत्री के आशिर्वाद के फलस्वरूप ही माधवाचार्यजी ने “माधव-निदान” नामक आयुर्वेद ग्रंथो की रचना की| जो आज भी आयुर्वेद महविधयालयो में पढाई जाती हैं|
यह घटना हमें, उपासना और अनुग्रह के बारे में बताती हैं कि प्रारब्ध [भुगतमान] जब तक समाप्त नहीं होता अनुग्रह नहीं मिलता परन्तु उपासना का फल अवश्य मिलता हैं|
उनके मन में अब कुशंकाओ ने जन्म ले लिया| इसका एक कारण यह था कि उनके मोहल्ले में एक लक्खी बाबा [गोरख सम्प्रदाय का, जो कमर में घंटी बांधकर चलता हैं] भिक्षाटन के लिए आया करता था| जो छोटी-मोटी तकलीफों जैसे दर्द वगैरह को भभूत देकर ठीक कर देता था| उसे देखकर, इन्हें लगने लगा कि यह लक्खी बाबा अधिक जानकार हैं|
एक दिन उन्होंने, उससे पुछा कि वह किस आधार पर भभूत के द्वारा दर्द ठीक कर देता हैं| उसने बताया कि उनके गुरु ने उन्हें श्री भैरवजी का मन्त्र दिया था तथा साधना बताई थी, जो उसने की और उसी के सहारे वह भभूत देता हैं|
माधव जी ने यह भी पुछा कि उसने साधना कितने दिन की थी?
तीन महीने-उसने बताया|
अब माधव जी के हृदय में श्री भैरव जी की साधना का जूनून आ गया| उन्होंने उस बाबा से साधना कि विधि बताने के लिए कहा| तब बाबा, अपने गुरु के पास माधव जी को ले गया|
उनके गुरु, माधव जी को जानते थे| उन्होंने बहुत ही आदर से बैठाया और बात की| माधव जी ने उन्हें सब बताया और भैरव उपासना की जानकारी के लिए उनसे अनुरोध किया| गुरु जी ने कहाँ, पंडितजी, आप व्यर्थ यहाँ-वहाँ भाग रहे हो, आपने सर्वोत्तम मार्ग चुना हैं, उसी में लगे रहिये परन्तु माधव जी के हृदय में तो कुशंकाओ ने जन्म ले लिया था, वे न माने| अंत में तीन माह की एक साधना उन्होंने , माधव जी को बता दी| घर आकर प्राण-पन से, साधना में लग गये|
समयावधि में ही एक दिन साधना के अंतर्गत उन्हें आवाज सुनाई दी पर कोई दिखाई नहीं दिया|
माधव जी ने पुछा “ कौन बोल रहा हैं और सामने क्यों नहीं आते?
तब यह आवाज आई कि मैं, वहीं हुं जिसकी आप आराधना कर रहे हैं किन्तु आपके सामने नहीं आ सकता|
क्यों?- पंडित जी ने पुछा|
तब भैरवजी ने कहा कि आपने गायत्री की जो आराधना की हैं, उससे, आप में इतना तेज आ गया हैं कि मै उसका सामना नहीं कर सकता| इसलिए आपके पीछे और दूर खड़ा हूँ|
यह सुनकर , पंडित जी ने फिर पुछा कि यदि मेरी पूर्व साधना इतनी प्रभावी हैं तो मुझे उसका फल क्यों नहीं मिला, कृपया यह बता दीजिये?
भैरव जी ने कहा-आपके सात जन्मो के प्रारब्ध [भुगतमान] थे| आपके एक अनुष्टान से एक जन्म का प्रारब्ध क्षीण हुआ हैं| आपने सात अनुष्ठान किये हैं, इसलिए अब सातों जन्म के प्रारब्ध समाप्त हो गये हैं|
यह सुनकर माधव जी ने श्री भैरव जी का आभार प्रगट कर उन्हें विदा कर दिया एवं पुन: गायत्री के अनुष्टान में लग गये|
जैसे ही अनुष्टान पूर्ण हुआ, माँ भगवती गायत्री उनके समक्ष प्रगट हुई तब माधवजी ने, अपनी उत्कंठा के विषय में बताया| माता ने उन्हें आशिर्वाद दिया|
माँ गायत्री के आशिर्वाद के फलस्वरूप ही माधवाचार्यजी ने “माधव-निदान” नामक आयुर्वेद ग्रंथो की रचना की| जो आज भी आयुर्वेद महविधयालयो में पढाई जाती हैं|
यह घटना हमें, उपासना और अनुग्रह के बारे में बताती हैं कि प्रारब्ध [भुगतमान] जब तक समाप्त नहीं होता अनुग्रह नहीं मिलता परन्तु उपासना का फल अवश्य मिलता हैं|
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