रावण का जन्म.



माल्यवान, माई और सुमाली नामक तीन राक्षस, पृथ्वी पर हुए थे। तीनों ने ब्रह्मा जी की तपस्या कर बलशाली होने का वरदान प्राप्त कर चुके थे। वरदान प्राप्त करते ही सबसे पहले वो शिल्पियों में श्रेष्ठ विश्वकर्मा जी के पास गए और उन्हें एक अद्वितीय भवन बनाने को कहा।
 
 उन राक्षसों को विश्वकर्माजी ने बताया कि त्रिकुट पर्वत पर एक स्वर्ण निर्मित लंका है, जो उन्होंने इंद्र के कहने पर बनायीं थी। चूँकि इंद्र अमरावती में रहते हैं तो तुम लोग जाकर वहां अपना निवास स्थान बना सकते हो। इतना सुनते ही तीनों भाई ख़ुशी-ख़ुशी वहां चले गए और लंका में निवास-रत हो गए। 

 तीनों का विवाह भी हो गया। माल्यवान का विवाह सौन्दर्यवती नमक स्त्री से हुआ। वसुधा का विवाह माली के साथ हुआ। वहीं सुमाली का विवाह केतुमती के साथ हुआ।

इसके बाद उनका उत्पात बढ़ने लगा। वे सभी देवों, ऋषि-मुनियों और साधू संतो को सताने लगे। ब्रह्मा जी के वरदान के कारण कोई उनको हरा भी नहीं पा रहा था। तब इन्द्रादि देव, भगवान् शंकरजी  के पास गए।   शंकर भगवान् ने उन्हें  समझाया  कि वे राक्षस उनके द्वारा नहीं मारे जा सकते। उचित  होगा कि वे भगवान् विष्णु जी के पास जाएँ। ये सुनकर सभी देवता गण, शंकर भगवान् की जय-जयकार करते हुए भगवान् विष्णु के पास चल दिए।

जब सभी देवताओं ने भगवान् विष्णु से रक्षा  हेतु  विनती की, तब  भगवान् श्री हरी ने देवो को आश्वस्त कर, भयमुक्त हो कर जाने को कहा। 


 भगवान विष्णु और तीनों दैत्यों के बीच युध्द हुआ, जिसमें  माली मारा गया। जब दैत्य इस लडाई में कमजोर पड़ने लगे तब  डर के मारे, लंका छोड़ पातल -लोक में चले गए। 

पुलत्स्य के पुत्र विश्रवा ऋषि हुए, जो हविर्भू के गर्भ से पैदा हुए थे। विश्रवा ऋषि की एक पत्नी वरवर्णिनी से कुबेर पैदा हुए थे|

उस लंका को  पिता विश्रवा के कहने पर कुबेर ने फिर से बसाई और  अपने पुष्पक विमान सहित वहां रहने लगे।


एक दिन सुमाली ने पृथ्वी का भ्रमण करते हुए, उन्हें पुष्पक विमान पर लंका से जाते हुए देखा।  यह देखकर, वह सोचने लगा  कि कब तक  यूँ ही डरे सहमे और  छिपते रहेंगे?  हमें भी साम्राज्य बढाना चाहिए।

पाताल लोक में निवास करते हुए  सुमाली ने यह योजना बनायी कि अगर विश्रवा ऋषि के साथ अपनी पुत्री कैकसी का विवाह हो जाए तो हमें देवताओं से भी तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति होगी। जो हमारा साम्राज्य बढ़ाएगा। ऐसा सोच कर उन्होंने अपने मन की बात अपनी पुत्री कैकसी को बताई। कैकसी ने वही किया जो उसके पिता की इच्छा थी।

जब वह अपने पिता की यह इच्छा लेकर पुलत्स्य के पुत्र विश्रवा मुनि के पास गयी। उन्हें सब कुछ बताया तब  विश्रवा मुनि ने उसे  बताया कि वो गलत समय पर आई हैं। इस कारण उनके पुत्र राक्षसी प्रवृत्ति के होंगे। यह सुन कैकसी ने विश्रवा मुनि से कहा,

” आप जैसे ब्रह्मवादी से मैं ऐसे दुराचारी पुत्र नहीं चाहती। अतः मुझ पर कृपा करें।”

यह सुन कर विश्रवा मुनि ने कहा कि तुम्हारा सबसे छोटा पुत्र मेरे वन्शानुरूप धर्मात्मा होगा। फिर विश्रवा मुनि और कैकसी के 3 पुत्र – रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण हुए और एक पुत्री सुपनखा हुयी। रावण के 10 सिर होने के कारण उसका नाम दशग्रीव रखा गया।

चारों भाई बहन वन में रहते हुए बड़े होने लगे। विभीषण सारा दिन भक्ति में लीन रहते और कुम्भकर्ण जहाँ मन करे घूमा करता था। वो धर्मात्माओं और महर्षियों को पकड़ कर खा जाया करता था। उसका पेट कभी नहीं भरता था।

एक दिन कुबेर पुष्पक विमान में अपने पिता विश्रवा मुनि से मिलने आये। उन्हें देख कर रावण की माँ कैकसी ने रावण से कहा, 


” देखो दशग्रीव, तुम में और तुम्हारे भाई में कितना अंतर है। उसका तेज कितना प्रज्ज्वलित है। तुम भी कुछ ऐस करो कि उसके समान हो जाओ।”

अपनी माता की ये इच्छा जान कर रावण ने यह प्रतिज्ञा ली की वो भी अपने भाई के बराबर पराक्रमी या उससे भी बढ़ कर होगा। ये सोच कर दशग्रीव अपने भाइयों सहित कठोर तप करने के लिए गोकर्ण नामक आश्रम में गया। उसने यह ठान रखा था कि वह तप कर के ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर उनसे वर प्राप्त करेगा।

रावण ने निरन्तर दस हजार वर्ष तक तपस्या की। एक हजार वर्ष पूरा होने पर वह अपना एक सिर होम में अर्पित कर देता था। इस तरह 9 हजार वर्षों तक वह अपने 9 सिर होम में अर्पित आकर चुका था। जब 10 हजार वर्ष पूरे होने को आये तो रावण 10वां सिर काटने को चला। तभी ब्रह्मा जी प्रकट हुए और रावण से कहा,

” हे धर्मज्ञ, तुझे जो वर मांगना है, शीघ्र मांग, जिससे तेरा परिश्रम व्यर्थ न जाए। ”

पहले रावण ने अमरता का वरदान माँगा लेकिन ब्रह्मा जी ने कहा की ऐसा संभव नहीं है। तब रावण ने ये वर माँगा कि मनुष्य जाती छोड़ और कोई भी उसका वध न कर सके। फिर ब्रह्मा जी ने वर के साथ उसके कटे हुए 9 सिर भी उसको वापस कर दिए। ये वरदान ऐसे ही बना रहे इसलिए ब्रह्मा जी ने रावण की नाभि में एक अमृत कुंड स्थापित कर दिया जिससे रावण की मृत्यु तभी संभव होती जब उस कुंड से अमृत सूख जाता। अब विभीषण की बारी थी तो उन्होंने यह वर माँगा कि वो सदा धर्म के कार्यों में लगे रहें। कितनी भी  विपत्ति क्यों न आन पड़े बुद्धि सदा धर्म में ही बनी रहे

जब कुम्भकर्ण की बारी आई तो देवताओं ने ब्रह्मा जी से बिनती की कि ये दैत्य तो बिना शक्तियों के सबको खा जाता है और उत्पात मचाता है। फिर भी इसका पेट नहीं भरता अगर इसने वर प्राप्त कर लिया तो बहुत ही विनाश करेगा। देवताओं की इस समस्या का हल करने के लिए ब्रह्मा जी ने सरस्वती जी का स्मरण किया। जब सरस्वती जी प्रकट हुयीं तो ब्रह्मा जी ने कुम्भकर्ण की जीभ से वही कहलाया जो देवता चाहते थे। कुम्भकर्ण ने वरदान माँगा कि वह अनेक वर्षों तक सोता रहे। ब्रह्मा जी ने ऐसा ही वरदान दिया।

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