मिथिला-प्रदेश में राज करने वाले कुल उन्नीस राजा “जनक” हुए हैं| सब मिथिला नरेश जनक ही कहलाते थे| उन्हें विदेही माना जाता था, क्योकि उनका पूर्वज योनिज नहीं था| यह तब की बात है, जब यह क्षेत्र मिथिला-प्रदेश के नाम से नहीं जाना जाता था और “निमि” यहाँ के नरेश थे| एक बार उन्होंने यज्ञ का आयोजन किया तथा ऋषि वशिष्ठ से यज्ञ संपन्न करने का अनुरोध किया| ऋषि वशिष्ठ ने कहा, “ इस समय मैं किसी अन्य का यज्ञ संपन्न करने जा रहा हूँ, उसके पश्चात मैं आपके यज्ञ में भाग ले सकूँगा.” इतना कहकर ऋषि वशिष्ठ चले गए| राजा निमि, यज्ञ में विलम्ब नहीं करना कहते थे. अत: उन्होंने अन्य विप्रों के सहयोग से यज्ञारंभ कर दिया| जब यज्ञ समापन की ओर था तभी ऋषि वशिष्ठ का यज्ञ स्थल पर आगमन हुआ| उन्हें यह देखकर बड़ा क्रोध आया कि राजा निमि उनकी प्रतिक्षा न कर सकें और यज्ञ आरंभ करवा दिया| उन्होंने कुपित होकर निमि को मृत्यु का श्राप दे दिया|
राजा निमि के देह त्यागते ही यज्ञ सम्पन्न करवा रहे, विप्र दुविधा में पड़ गए| यज्ञ को अधूरा छोड़ना अशुभ था और निमि के बिना उसे कोई संपन्न नहीं करवा सकता था| यज्ञाहुतियाँ लेने के लिए स्वम् देवता भी वहाँ उपस्तिथ थे| विप्रों ने उनसे विनती कि, “ हे देवताओ! किसी उपाय से राजा निमि को जीवित करें, यज्ञ अधूरा रह गया तो अनर्थ हो जायेगा.”
देवताओ ने राजा निमि की आत्मा का आवाहन किया| आत्मा आई तो, देवताओ ने उससे राजा निमि के मृत देह में प्रवेश करने का आग्रह किया किन्तु सर्वत्र व्याप्त, मुक्त और स्वच्छन्द आत्मा देह में प्रविष्ट होकर क्यों स्वम् को सीमित करती? उसने देवताओं का आग्रह ठुकरा दिया परन्तु राजा निमि का पुनर्जन्म आवश्यक था| अत: देवताओ ने उसकी मृत देह का मंथन किया, परिणामस्वरूप उनकी देह से एक शिशु अवतरित हुआ, जो नगर नरेश बना और यज्ञ को संपन्न कराया|
तब से उस नगर का नाम मिथिला पड़ा क्योंकि राजा निमि की देह को मिथिल (मंथन) करने के उपरांत उनका अंश पुनर्जीवित होकर अवतरित हुआ था| उसी समय से मिथिला के नरेश ‘जनक’ कहलाने लगे. जनक की परम्परा में जितने भी नरेशों ने मिथिला में राज किया, वे सभी मुमुक्षु और ज्ञानाग्रही थे|
(अष्टावक्र गीता के अनुसार)
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