न अति की सीमा तक मैत्री बढ़ानी चाहिए, न घृणा द्वेष की आग में जलना चाहिए। लोग जैसे भी हैं। बने रहे, हमें अपना कर्तव्य भर पालन करते रहना है, यह मानकर चलते रहना सरल पड़ता है और सुलभ भी है। इस नीति से जिन्दगी आसानी के साथ कट जाती है और सम्बन्धित लोगों के रिस्ते का देर तक ठीक प्रकार निर्वाह होता रहता है।
इसके आगे की भावुक स्थिति को असामान्य या अतिवादी कह सकते है। वह इस छोर पर पहुँचेगी या उस छोर पर। या तो आदर्शवाद व्यक्तियों के साथ सघन होकर उच्चस्तरीय आत्मिक विकास की भूमिका बनाएगी या फिर लोभ और मोह में उलझकर उन्माद जैसी स्थिति उत्पन्न करेगी। उसमें रुझान ही प्रधान रहता है। दुष्ट और दुर्गुण भी प्रिय लगने लगता है, यहाँ तक की उस तथाकथित प्रेमी की प्रसन्नता की लिए स्वयं का भी दुष्कर्मों में सहयोग समर्थन चल पड़ता है। तब प्रियपात्र को आदर्श की ओर ले चलने का उत्साह समाप्त हो जाता है और मित्र को प्रसन्न करने के लिए कुछ भी कर गुजरने को मन रहता है, भले ही वह कर गुजरना कितना ही अनैतिक या अवांछनीय क्यों न हो। यह पतन का अन्तिम छोर है। प्रेम का विकृत स्वरूप कितना विघातक हो सकता है, इसका परिचय इस मोहग्रस्त उन्मादी आवेश की स्थिति वाले वातावरण में कहीं भी देखा जा सकता है।
प्रेम का उज्ज्वल पक्ष ऐसा है जिसमें उस पवित्र सूत्र में बंधे दोनों पक्षों का केवल उत्कर्ष और कल्याण ही होता है। ऐसी मित्रता एक आदर्शवादी अन्तःकरण को दूसरे परिष्कृत व्यक्तित्वों के साथ बाँधती है। एक और एक मिलकर ग्यारह बनने की उक्ति उन पर लागू होती है। उनका भावनात्मक आदान प्रदान परस्पर एक दूसरे को ऊँचा उठाता है और आगे बढ़ाता है। ऐसी मित्रता का आरम्भ सदुद्देश्य के लिए होता है, इसलिए उसका अन्त भी सुखद संतोषजनक ही रहता है। परिस्थितियाँ इन मित्रों को दूर दूर रहने के लिए विवश कर दे तो भी उनकी सद्भावना और घनिष्ठता में कोई अन्तर नहीं आता, जबकि मोहग्रस्त लोग जब तक सामने रहते हैं, तब तक देख देख कर जीने की बात करते हैं, पर जब विलग हो जाते हैं तो कुछ ही समय में उनकी स्थिति अपरिचितों जैसी हो जाती है।
मोह में आदान प्रदान करने की शर्त जुड़ी रहती है। हमने उसके लिए यह किया इसलिए उसने हमारे लिए यह करना चाहा-ऐसा लेखा जोखा जहाँ भी लिया जा रहा होगा, वहाँ लाभ-हानि के आधार पर संतोष अथवा आक्रोश भी व्यक्त किया जा रहा होगा। अपेक्षा पूरी होने पर वह आतुर प्रेम भयंकर प्रतिशोध भी बन जाता है और आज दाँत काटी रोटी वाले मित्र कल जान के ग्राहक बने दिखाई पड़ते हैं। प्रेमोन्माद में यह ज्वार भाटे जैसी उठक पटक स्वाभाविक भी है। सच्चे प्रेम में आँधी तूफान नहीं आते। उसमें एक रस शीतल और सुगंध पवन बहता रहता है। प्रेम देने के लिए किया जाता है लेने के लिए नहीं। झंझट तो तब खड़ा होगा जब लेने की अपेक्षा की जायेगी और वह जो चाहा था सो मिल सकेगा। प्रेम इसी चट्टान से टकराकर नष्ट- भ्रष्ट होता है। अनुदान अपने हाथ की बात है, प्रतिदान दूसरे के हाथ की। प्रतिदान का अभिलाषी मोह है और अनुदान के लिए समुन्नत प्रेम। मोहग्रस्त का पग-पग पर खोज का, जलन का, उलाहने का, पश्चाताप का, अनुभव होता है किन्तु जहाँ प्रेम है वहाँ शान्ति स्थिरता और प्रसन्नता की स्थिति कभी परिवर्तन दृष्टिगोचर ही न होगा। ऐसा परिष्कृत प्रेम ही आत्मा की उच्चस्तरीय आवश्यकता है। उसे पाकर मनुष्य इतना आनन्द पाता है, जितना ईश्वर का अपनी गोदी में बिठाकर अथवा स्वयं उनकी गोदी में बैठकर पाया जा सकता है।
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