प्रेम अमृत है तो मोह विष.
सरल लोभी भ्रमर और पराग प्रेमी मधुमक्खियाँ एक फूल को चूसकर दूसरे पर जा बैठती है। तितलियों को एक फूल पर बैठे रहने से संतोष नहीं होता, उन्हें क्षण क्षण नवीनता चाहिए। प्रेम जहाँ होगा वहाँ यह अस्थिर उन्माद कभी भी दृष्टिगोचर न होगा। जहाँ आस्थाएँ काम कर रही होंगी, तो विश्वास दे सकने और पा सकने की स्थिति बनेगी।
आजीवन मैत्री निर्वाह का आधार वही तो बनेगा। प्रेम-धर्म निबाहना केवल सूरवीरों का काम है- उसके लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए। मोहग्रस्त लोभीजन उसका निर्वाह कर सके, यह सम्भव नहीं हो सकता।
मोहग्रस्त मनः स्थिति में भौतिक अनुदान, उपहार देने या पाने की प्रवृत्ति रहती है। यदि इस स्तर की प्रेम विडम्बना नर नारी के बीच चल रही होगी, तो उनमें यौन-लिप्सा की आतुर माँग होगी। भले ही प्रियपात्र का गृहस्थ भविष्य एवं स्तर पतन के गर्त में गिरता हो तो गिरे। उन्माद की पूर्ति किसी भी कीमत पर होनी चाहिए। आवेश यह मोह ही प्रेम जैसा लगता है और उस आतुर मनःस्थिति में पड़े हुए उन्मादी अपने आपको प्रेमी कहने लगते हैं, जबकि यह आचरण प्रेम के तत्त्वदर्शन की सीमा को छू भी नहीं रहा होता।
विशुद्ध प्रेम व्यक्तियों के बीच आदर्शवादी विशेषताओं के कारण होता और पनपता है। वास्तविक सौंदर्य शरीर का नहीं, आत्मा का होता है। वह आकृति को देखकर ठिठकता नहीं, वरन् गहराई में प्रवेश करके प्रकृति के मर्मस्थल तक चला जाता है। ऐसे व्यक्ति शारीरिक आकर्षण को तनिक भी महत्व नहीं देते। उनके लिए काली कुरूप आकृति में कोई न्यूनता दिखाई नहीं पड़ती जिसकी तुलना में किसी रूप यौवन सम्पन्न को महत्व दिया जा सके। ऊपर चमड़ी के भीतर सर्वत्र रक्त, माँस, अस्थि जैसे घिनौने और दुर्गन्ध युक्त पदार्थ ही तो भरे पड़े हैं। उनमें केवल मूढ़मति ही उलझती है। शरीर-आकर्षण को लेकर आरम्भ हुआ प्रेम संध्याकाल के रंगीले बादलों की तरह देखत-देखते धूमिल होता चला जाता है और फिर कुछ समय बाद उसका कहीं भी पता नहीं चलता।
प्रेम गुणग्राही होता है और वह केवल वहीं जमता है जहाँ व्यक्ति में आदर्शवादी विशेषताएँ परिलक्षित होती है। यह आत्मा की भूख है कि आत्मिक विभूतियों से भरे व्यक्ति सजातीय आकर्षण से प्रभावित होकर उसकी भावनात्मक समीपता चाहे। जड़वादी मोहग्रस्तता के पीछे यौन-लिप्सा का तांडव रहता है। जबकि आत्मवादी प्रेम में केवल सद्भावनात्मक आत्मीयता के आदान प्रदान की माँग रहती है। ऐसे प्रेमीजन यदि नर नारी है तो आजीवन अति पवित्र सम्बन्ध खुशी खुशी बनाये रह सकते हैं। और एक दूसरे के चरित्र को उज्ज्वल सिद्ध करने के लिए अपनी दुर्बलता को सदा-सदा तक काबू रख सकते हैं।
पुरुष और नारी के बीच, नारी और नारी के बीच उन्मादी प्रेम सघन नहीं हो सकता, किन्तु निष्ठावान् प्रेम के लिए लिंगभेद जैसी कोई अड़चन नहीं है। दाम्पत्य जीवन में एक दूसरे पर जैसी निर्भरता होती है, एक दूसरे के सान्निध्य में जितना आनन्द प्राप्त होता है, वैसा विश्वस्त और भावभरी स्थिति नारी और नारी के बीच भी रह सकती है। मैत्री और कामुकता दो भिन्न वस्तुऐं हैं। आवश्यक नहीं कि दोनों साथ रहें। कामुकता विहीन मैत्री भी उसी प्रकार निभ सकती है, जिस प्रकार दुनियादार लोगों की मैत्रीविहीन कामुकता का क्रीड़ा प्रायः चलता रहता है।
देवता और असुर भावनात्मक उभार के दो सिरे है। मध्यवर्ती स्थान शांत और संतुलित रहता है। सामान्य मनुष्य हर किसी से मानवोचित सद-व्यवहार करते हैं और अपने कर्तव्य धर्म पर आरूढ़ रहकर मध्यवर्ती गतिविधियाँ चलाते हुए जीवनक्रम पूरा करते हैं। न उन्हें किसी से आध्यात्मिक घनिष्ठता होती है न किसी से रोष, विद्वेष ही सताता है। वे जानते हैं मनुष्यों की पारस्परिक सहिष्णुता और सद्व्यवहार के आधार पर ही गुजर करनी पड़ती है। इसलिए सम्बन्धों का संतुलित निर्वाह करते हुए गुजर करनी चाहिए।
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