रानी लक्ष्मीबाई.



लक्ष्मीबाई का जन्म 1828 में वाराणासी के एक मराठा परिवार में हुआ था| उसका बचपन का नाम मणिकर्णिका था और लोग प्यार से उन्हें मनु कहकर पुकारते थे| उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी बाई था| उसके माता पिता महराष्ट्र से आये थे| मनु जब चार वर्ष की थी तभी उसकी माता की मृत्यु हो गयी थी| उनके पिता बिठूर जिले के पेशवा के दरबार में काम करते थे| पेशवा ने मनु को अपनी बेटी की तरह पाला था| पेशवा उन्हें छबीली कहकर पुकारते थे| उनकी शिक्षा घर पर ही हुयी थी और उन्होंने बचपन में ही निशानेबाजी, घुडसवारी और तलवारबाजी सीख ली थी|

मणिकर्णिका की शादी मई 1842 में झांसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर से हुयी थी| उनकी शादी के बाद से ही उनको हिन्दू देवी लक्ष्मी के नाम पर लक्ष्मीबाई कहकर पुकारा जाने लगा | रानी लक्ष्मीबाई ने 1851 में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम दामोदर राव रखा लेकिन दुर्भाग्यवश केवल चार महीनों में उसकी मृत्यु हो गयी | रानी लक्ष्मीबाई पुत्रशोक में कई दिनों तक दुखी रही फिर महाराजा ने अपने चचेरे भाई के पुत्र आंनद राव को गोद ले लिया, जिसका नाम बाद में बदलकर दामोदर राव रखा गया | उसके नामकरण से एक दिन पूर्व ही दामोदर राव की मृत्यु हो गयी | रानी लक्ष्मीबाई पहले पुत्र का शोक उभरी भी नही थी कि दूसरा दुःख आ गया पर लक्ष्मीबाई ने धैर्य का परिचय दिया |

महाराजा की मृत्यु के बाद तत्कालीन गर्वनर जनरल ने दामोदर राव को उत्तराधिकारी बनाने से मना कर दिया क्योंकि दामोदर गोद लिया हुआ बच्चा था और अंग्रेज नियमो के अनुसार सिंहासन का उत्तराधिकारी केवल खुद के वंश का पुत्र ही बन सकता था | 1854 में लक्ष्मीबाई को 60000 रूपये की पेंशन देकर किला छोड़ने का आदेश दिया गया | अंग्रेज लोग उन्हें नाम से ना पुकारकर झांसी की रानी कहकर बुलाते थे|

1857 के शुरुवात में एक अफवाह फ़ैल गयी कि ईस्ट इंडिया कंपनी में सैनिको द्वारा उपयोग किये जाने वाले कारतूस में गाय और सूअर का मांस मिला हुआ है, जिससे धार्मिक भावना आहत हुयी और देश भर में विद्रोह शुरु हो गया |

10 मई 1857 को भारतीय विद्रोह, मेरठ से शुरू हुआ| जब ये खबर झांसी तक पहुची तो रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेज अफसर से अपनी सुरक्षा के लिए सैनिको की मांग की और वो राजी हो गये | कुछ दिनों तक रानी लक्ष्मीबाई झांसी की सभी औरतो को विश्वास दिलाती रही कि अंग्रेज डरपोक है और उनसे नही डरना चाहिए| झांसी को विद्रोहियों से बचाने के लिए रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजो की तरफ से झांसी का कार्यभार दे दिया गया|

कुछ समय तक लक्ष्मीबाई अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह करने में अनिच्छुक थी, लेकिन सितम्बर-अक्टूबर, 1857 के दौरान रानी ने झांसी को पड़ोसी राजाओ की सेनाओ के आक्रमण से बचाया | अंग्रेजो की सेना झांसी की स्तिथि सँभालने के लिए पहुची लेकिन पहुचने पर देखा कि झांसी को तो भारी तोपों और सैनिको से सुरक्षित कर लिया गया था|

अंग्रेजो ने रानी लक्ष्मीबाई को समर्पण के लिय कहा लेकिन उसने मना कर दिया |

रानी ने घोषणा की “हम स्वतंत्रता के लिए लड़ेंगे, भगवान कृष्ण के शब्दों में अगर जीत गये तो जीत का जश्न मनायेगे और हार गये या रणभूमि में मारे गये तो हमे अविनाशी यश और मोक्ष मिलेगा |" उसने अंग्रेजो के खिलाफ बचाव अभियान शुरू कर दिया |

जनवरी 1858 में अंग्रेज सेना, झांसी की तरफ बढी | अंगेजो की सेना ने झांसी को चारो ओर से घेर लिया | मार्च 1858 में अंग्रेजो ने भारी बमबारी शुरू कर दी |

लक्ष्मीबाई ने मदद के लिए तात्या टोपे से अपील की और 20000 सैनिको के साथ तात्या टोपे अंग्रेजो से लड़े लेकिन पराजित हो गये | तात्या टोपे से लड़ाई के दौरान अंग्रेज सेना झांसी की तरफ बढ़ रही थी और घेर रही थी | अंग्रेजो की टुकडिया अब किले में प्रवेश कर गयी और मार्ग में आने वाले हर आदमी या औरत को मार दिया |

दो सप्ताह तक उनके बीच लड़ाई चलती रही और अंत में अंग्रेजो ने झांसी पर अधिकार कर लिया | हालांकि रानी लक्ष्मीबाई किसी तरह अपने घोड़े बादल पर बैठकर अपने पुत्र को अपनी पीठ पर बांधकर किले से बच निकली| रास्ते में उसके प्रिय घोड़े बादल की मौत हो गयी |

उसने कालपी में शरण ली और महान योद्धा तात्या टोपे से मिली |

22 मई को अंग्रेजो ने कालपी पर भी आक्रमण कर दिया और रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में फिर तात्या टोपे की सेना हार गयी | इस बार फिर रानी लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे को ग्वालियर की तरफ भागना पड़ा |

17 जून को ग्वालियर के युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गयी | अंग्रेजो ने तीन बाद ग्वालियर के किले पर भी कब्जा कर लिया |

अंग्रेजो ने रानी लक्ष्मीबाई को एक वीर योद्धा कहा था, जो मरते दम तक लडती रही |ऐसा माना जाता है कि जब वो रणभूमि में अचेत पड़ी हुयी थी तो एक ब्राह्मण ने उसे देख लिया और उसे अपने आश्रम ले आया जहा उसकी मौत हो गयी |

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