समाज को सुधारा और
उभारा जाय.
पुराने मकान जहाँ-तहाँ से जीर्ण होकर टूटते फूटते रहते हैं। उनकी हाथोंहाथ मरम्मत करा देने से इसी घर से मुद्दतों काम लिया जा सकता है, किन्तु यदि बिगड़ने की उपेक्षा बरती जाय तो जिस प्रकार एक सड़ा हुआ अवयव दूसरे समीपवर्ती अंगों को भी काटने योग्य बना देता है, पीछे बड़ी परेशानी का कारण बनता है, उसी तरह समाज का सारा ढाँचा गड़बड़ा जाएगा। इसकी अपेक्षा तो यह अच्छा है कि सुधार के लिए आवश्यक साधनों-उपकरणों को सदा तैयार रखा जाय।
द्रोणाचार्य हाथ में शास्त्र और कंधे पर शस्त्र रख कर चलते थे। गुरु गोविन्दसिंह ने एक हाथ में माला और दूसरे में भाला रखने की नीति अपनाई थी, सज्जनों को प्यार एवं विवेक से भी समझाया जा सकता है। किन्तु पशु प्रवृत्ति के लिए प्रताड़ना ही एक मात्र शिक्षा विधि है। हिंसक पशुओं को धमकाये बिना न आत्मरक्षा का साधन सधता है और न उन्हें सर्कस में कोई कौतूहल दिखा सकने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। जिस प्रकार समाज को अध्यापकों, साहित्यकारों, शिल्पियों की आवश्यकता पड़ती है, उसी प्रकार पुलिस और सेना को भी सशक्त बनाना पड़ता है। कचहरी, जेल का प्रबंध इसीलिए किया जाता है कि उद्दंडता पर नियंत्रण किया जा सके, अन्यथा वे विरोध न होने की दशा में दूने चौगुने उत्साह से कुचक्र रचते एवं अनाचार फैलाते हैं। खेत को पानी मेंड़ बाँध कर रोका न जाय तो वह पौधे सींचने की अपेक्षा जमीन को काटकर खाई-खड्ड बना देगा।
अपना देश, धर्म और समाज विश्व के प्राचीनतम निर्धारणों में से है। इसलिए स्वाभाविक ही है कि उसमें विकृतियों का अनुपात बढ़े और वह पूर्वजों की गरिमा पर कलंक कालिमा लगाने में निरत रहे और विनाश के विष बीज बोये। यही कारण है कि सदा-सदा से सुधारक वर्ग की आवश्यकता अनुभव की जाती रही है। उसे सेना या पुलिस की उपमा दी जाती है। यदि वह सतर्क न रहे तो किसी की सम्पदा एवं इज्जत सुरक्षित न रहे। सुधारक रूपी सफाई कर्मचारी अपनी झाडू-टोकरी को निरन्तर गतिशील न रखें तो समाज रूपी नगर में हैजा जैसी महामारी फैलने में देर न लगे।
(अखंड
ज्योति-9/1986)
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