ऐसा व्यक्ति धरती पर
राजा के समान जीने
वाला होता है.
(सुधांशु जी महाराज)
उन्होंने कभी केवल स्वयं अपनी, अपने परिवार की कुशलताओं के लिए मंगलकामनाएं नहीं की, वे उदात्त महापुरुष केवल अपनी आकांक्षाओं के लिए नहीं जिए। बल्कि उन्होंने समूचे मानव जगत् को ही अपना परिवार माना।
उस समय अगर किसी की आंखों में, किसी कारण से आंसू आ गए तो उन्हें देखकर पीठ घुमाने की हमारी परम्परा नहीं थी। अपितु उस समय हर व्यक्ति दूसरे के दुःख-दर्द को, दूसरे की पीड़ा को अपने हृदय में महसूस करता था और हर अच्छे सच्चे धर्म प्रेमी इंसान के लिए चुनौती बन जाता था।
तब वे प्रेमपूर्ण वचन उच्चारते थे कि हमारे रहते हुए कोई रोए क्यों? अगर हम जिन्दा हैं तो क्या इसीलिए हैं कि हमारे पास रहने वाला तड़प-तड़प कर अभाव सहे? किसी के साथ हम अत्याचार नहीं होने देंगे, किसी के भी स्वर्णिम सपने चकनाचूर हम नहीं होने देंगे।
भगवान राम ने जब विभिषण को मित्र बनाया.
मानव तो मानव हमारे यहां तो स्वयं भगवान भी जब अवतार लेकर धराधाम पर आए तो उन्होंने भी मानवमात्रा को धर्म का पाठ पढ़ाया। दूसरों के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रेरणा प्रदान की, त्याग पूर्वक जीवन जीने का दर्शन सिखाया। जिस समय लंकाधिपति रावण के अनुज भाई विभीषण स्वयं चलकर भगवान श्रीराम की शरण में पहुंचे। तब भगवान श्रीराम की ओर से सुग्रीव जामवंत आदि ने विभीषण पर विश्वास नहीं किया। लेकिन भगवान राम ने उन्हें गले लगा लिया। सुग्रीव ने कहा-दुश्मन है, दुश्मन का सगा भाई है। इतनी जल्दी इतना विश्वास कहीं धोखा न हो जाए।
भगवान श्रीराम ने यहां पर विभीषण के सम्मान को विराम नहीं दिया। उन्होंने विभीषण से कहा कि मैं तुम्हें लंका का अधिपति बनाना चाहता हूं, मैं तुम्हारा अभी राजतिलक करना चाहता हूं। यह मेरा अटल विश्वास है कि तुम एक दिन लंका पर राज करोगे। पर मैं आपका राज्यभिषेक तो अभी करने का प्रयास करूंगा।
सुग्रीव यह सब दूर से देख रहे थे, सुन रहे थे, दौड़े-दौड़े आए और भगवान से कहने लगे कि हे प्रभु! जरा सोचिए, अभी तो हमने लंका को जीता भी नहीं है और विभीषण भी कुछ समय पहले ही आपकी शरण में आया है। कहीं हम जल्दी तो नहीं कर रहे हैं।
नीति कहती है कि अधिक जल्दी भी कई बार परेशानी का सबब बन जाती है और इसके विपरीत किसी शुभ मुहूर्त को टालना भी उचित नहीं कि देख लेंगे, आज नहीं तो कल हो जाएगा, यह भी उचित नहीं है। भगवान श्रीराम मुस्कराते हुए बोले, हे सुग्रीव! इस समय हम किसी देश के राजा नहीं हैं, अपितु तपस्वी हैं। परन्तु जिस कुल में हमने जन्म लिया है, उस कुल की नीतियां, परंपराएं कुछ अलग हैं।
सुग्रीव ने पुनः विनम्रता से हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए भगवान श्रीराम से निवेदन किया कि हे प्रभु! फिर भी विभीषण के राजतिलक की इतनी शीघ्रता न कीजिए। अभी तो लंकेश रावण के साथ हमारा युद्घ भी शुरू नहीं हुआ है, इस बीच अगर राजा रावण भी आपकी शरण में आकर क्षमा-याचना करने लगे कि मुझसे भूल हो गई थी। मुझे माफ कर दीजिए। फिर आप विभीषण को किस राज्य का राजा बनाएंगे।
युद्घ में होने वाला खून-खराबा यदि न हो, प्रेमपूर्ण तरीके से ही समाधन निकल जाए तो फिर इस राज्य और उस राज्य की तो कोई बात ही नहीं। इन जमीन के टुकड़ों में क्या भेद है? वैसे भी जमीन को बांटना, पानी और हवाओं को विभाजित करना तो इंसान की न समझी है। प्रेमपूर्ण होकर दुनिया में बसर करना सबसे बड़ी समझदारी है।
जिस इंसान को प्रेम से धरती पर रहना आ जाए, वह किसी राजा से कम नहीं है। इसलिए सबके घर-परिवारों में खुशहाली हो, सबके यहां प्रेम-प्रसन्नता के दीप जलें, यही हमारी कामना है और यही हमारे हृदय की भावना है। अगर आज रावण के साथ हमारा युद्घ करना जरूरी हो गया है तो उसका कारण रावण का अधर्मिक आचरण है। वरना धर्माचरण करने वाले को तो दण्ड नहीं पुरस्कार दिया जाता है।
भगवान श्रीराम के मुख से धर्म का संदेश सुनकर सुग्रीव की आंखों से आंसू बहने लगे। भगवान श्रीराम के सम्मुख भाव विह्नल होकर सुग्रीव ने कहा प्रभु! आपके हृदय की विशालता, उदारता महान है। आपने एक क्षण में अपने शत्रु को क्षमा करने की बात कहकर यह जता दिया कि क्षमा करना बहुत बड़ा गुण है। मनुष्य को क्षमाशील होना चाहिए यह भी धर्म का लक्षण है।
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