जोश के
साथ होश.
श्री गीता पढ़ने सुनने या समझने की सार्थकता इसी में है कि इन्द्रियों पर संयम किया जाय। इन्द्रियों का वेग तथा प्रवाह में बह जाना मानवधर्म नहीं है। किसी भी साधन योग, जप, तप, ध्यान इत्यादि का प्रारम्भ संयम बिना नहीं होता।
संयम के बिना जीवन का विकास नहीं होता। जीवन के सितार पर हृदय मोहक मधुर संगीत उसी समय गूँजता है, जब उसके तार नियम तथा संयम में बँधे होते हैं।
उपनिषदों में कहा गया है कि जिस घोड़े की लगाम नहीं होती, उस पर सवारी करना खतरे से खाली नहीं है। संयम की बाघ-डोर लगाकर ही घोड़ा निश्चित मार्ग पर चलाया जा सकता है। ठीक यही दशा हृदयरूपी अश्व की है। विवेक तथा संयम द्वारा इन्द्रियों को आधीन करने पर ही जीवन यात्रा आनन्दपूर्वक चलती है।
उच्छृंखल युवक कभी-कभी मानसिक सामाजिक और राष्ट्रीय बन्धनों को तोड़ देना चाहते हैं। यह भारी भूल है। जीवन में जोश के साथ होश की उसी प्रकार आवश्यकता है, जैसे अर्जुन के साथ श्री कृष्ण की। अर्जुन में बल था परन्तु श्री कृष्ण की नीति और बुद्धि ने उसे हजार गुना बढ़ा दिया था।
(साभार-पंडित दीनानाथ भार्गव “दिनेश)
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