शिक्षा से संतुष्ठी उचित नहीं.
हम संसार की अनेक बातें जानते हैं, पर अपनी आत्म-सत्ता के संबंध में हमारा ज्ञान बहुत थोड़ा है। दुनियावी स्वार्थ में हम भले ही चौकस हों, पर आत्मिक स्वार्थों के क्षेत्र में पग-पग पर बाजी हारते हैं। थोड़ी सी भोग सामग्री हमारे पास भले ही जमा हो जाय पर आत्मिक सम्पत्तियों से प्रायः हम रीते ही रहते हैं। यह समझ किस काम की? इस शिक्षा से, इस चतुराई से क्या लाभ, जिसके द्वारा एकाँगी तुच्छ को प्राप्त करना तो सुलभ हो जाय पर वास्तविक लाभ की पहचान और उपलब्धि में कुछ भी प्रयोजन सिद्ध न हो। शिक्षा तो वह है- जिससे बुद्धि का उचित परिमार्जन हो और जीवन के हर पहलू पर ठीक तरह विचार कर सकने की क्षमता प्राप्त हो जाय।
कहते हैं कि “इंसान को इशारा काफी होता है।” जो संकेत मात्र से साधारण विचार बुद्धि से अपना हित अनहित समझ ले। कुमार्ग पर चलने से अपरिमित हानि होती है और लाभ अत्यन्त तुच्छ और क्षणिक। जिसे कौड़ी के मोल हीरा बेचते हुए झिझक नहीं होती उसे शिक्षित किस प्रकार कहा जाय? शिक्षित कहना तो दूर उसे तो इंसान तक नहीं कह सकते, क्योंकि “इन्सान को इशारा काफी होता है।” जब कोई अनुचित कार्य किया जाता है तो आत्मा इशारा करती है, अन्तःकरण पुकारता है कि यह न करो यह अनुचित है। यह बड़ा जोरदार इशारा है जो इशारा नहीं समझता और केवल लोभ तथा भय को ही समझता है वह तो पशु है। उसे तो नर पशु ही कहा जा सकता है।
साँसारिक जानकारी की बहुत सी बातें स्कूलों में सिखाई जाती है, वे उचित भी हैं और आवश्यक भी, पर इतने मात्र से ही संतुष्ट हो बैठना पर्याप्त न होगा। हमें शिक्षा का वह भाग भी प्राप्त करना चाहिए जिससे सत् असत् का विवेक होता है और सच्चे स्वार्थ साधन के लिए उत्साह पैदा होता है। ऐसी शिक्षा के लिए स्वाध्याय, सत्संग, संयम, सदाचार तथा सच्चिदानंद प्रभु का आश्रय लेना होता है। ऐसी शिक्षा अपने प्रकाश से अन्तरात्मा के अन्धकार को दूर करके आत्मिक और साँसारिक जीवन को सुखी बना सकती है।
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