सत्संग.


सत्संग.

मानव जीवन में दो कर्म मुख्यत: हैं। पहला व्यवहारिक और दूसरा पारमार्थिक। व्यवहारिक लक्ष्य के अधीन शिक्षा प्राप्त करना, जीवन के लिए उपार्जन, सामाजिक उत्कर्ष के लिए दाम्पत्य इत्यादि। पारमार्थिक लक्ष्य के अधीन ईश्वर की प्राप्ति। धार्मिक ग्रंथों में इन दोनों के लिए सदाचार और कर्म के अनुदेश निहित हैं। तदनुसार आचरण करने से मानव जीवन में संतोष के साथ सुख-शांति बनी रहती हैं। दुःख और अशांति की स्तिथि उत्पन्न होने पर उसे मार्गदर्शन की आवश्यकता होती हैं। व्यवहारिक और पारमार्थिक दोनों लक्ष्य के लिए समाज में मार्गदर्शक उपलब्ध हो जाते हैं। ग्रंथों में चार पदार्थ यथा अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष बताये गए हैं। व्यवहारिक पक्ष प्रबल नहीं होगा तब मानव का पारमार्थिक पक्ष नहीं सुधर सकता, इस बात की गांठ बांध लीजये। आजकल धर्म भी व्यवसायिक हो गया हैं। भगवा पहन कर, सझ धज कर, ऊँचे सिंघासन पर बैठ कर, सभी लोग अपने शिष्यत्व की संख्या बढ़ाने में लगे हैं। सब दक्षिणा और दान के लिए भरमाते रहते हैं। ये किसी काम के नहीं हैं। धार्मिक ग्रन्थ उठाकर देख लीजिये सुखदेव महाराज ने राजा परीक्षित को भागवत सुनाई और उपदेश किया था और अंत में आँख बंद करके प्रभु का स्मरण करने के लिए कहा। राजा परीक्षित ने आँख बंद करके प्रभु का स्मरण करने के पश्चात जैसे ही आँखे खोली, अपने सामने सुखदेवजी महाराज को नहीं पाया क्योकि जैसे ही राजा परीक्षित ने आँख बंद की थी, उसी समय सुखदेवजी चुपचाप उठकर चले गए थे। अन्य उदाहरण भी इससे मिलते जुलते हैं। किसी ने किसी से कुछ नहीं लिया था। इसलिए धर्म का जो व्यवसाय चला रहे हैं, उनसे बचिए।

स्वाध्याय याने पठन-पाठन। धार्मिक ग्रन्थ सरलता से उपलब्ध हैं। प्रतिदिन उनका स्वाध्याय कीजिये और तदनुसार आचरण कीजिये। स्वाध्याय को ही ग्रंथो में सर्वोत्त्कृष्ट सत्संग कहा गया हैं। कारण विशेष वश जब इसमें परेशानी हो तब किसी ऐसे धर्म के जानकार विद्वान को अच्छी तरह परख लीजिये, उसे जान जाइये, पूर्णतया स्वत: संतुष्ट हो जाने पर, उसका शिष्यत्व ग्रहण कर लीजिये। अपात्र को दान देना या गुरु बनाने का निषेध शास्त्र में हैं।

सत्सज्जन या सतगुरु से सत्संग का लाभ स्वाध्याय के सत्संग के बाद दुसरे नम्बर पर आता हैं। सत्संग की महिमा शास्त्र और सदविद्वानों ने अभूतपूर्व बताई हैं। सत्संग की महिमा विद्वत जन और ग्रंथो में बताई गई हैं....

संतो के संग से मिलने वाला आनंद तो बैकुण्ठ मे भी दुर्लभ है-- कबीर जी कहते है कि 
राम बुलावा भेजिया , दिया कबीरा रोय !
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय !!

रामचरितमानस मे भी लिखा है कि --
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरि तुला एक अंग
तुल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग
आशय..हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये। तब भी वे सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से मिलता है।'

सत्संग की बहुत महिमा है,, सत्संग तो वो दर्पण है जो मनुष्य के चरित्र को दिखाता है ओर साथ-साथ चरित्र को सुधारता भी है। सत्संग से मनुष्य को जीवन जीने का तरीका पता चलता है। सत्संग से ही मनुष्य को अपने वास्तविक कर्यव्य का पता चलता है मानस मे लिखा है की---

सतसंगत मुद मंगल मुला,
सोई फल सिधि सब साधन फूला
अर्थात सत्संग सब मंगलों (आनंद) का मूल है। जैसे फूल से फल ओर फल से बीज और बीज से वृक्ष होता है। उसी प्रकार सत्संग से विवेक जागृत होता है और विवेक जागृत होने के बाद भगवान से प्रेम होता है और प्रेम से प्रभु प्राप्ति होती है—“जिन्ह प्रेम किया तिन्ही प्रभु पाया”--- सत्संग से मनुष्य का मन, बुद्धि शुद्ध होती है-- सत्संग से ही भक्ति मजबूत होती है। “भक्ति सुतंत्र सकल सुखखानि बिनु सत्संग न पावहि प्राणी” भगवान की जब कृपा होती है तब मनुष्य को सत्संग और संतो का संग प्राप्त होता है। “गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन, बिनु हरि कृपा न होई सो गावहि वेद पुरान”। एक क्षण का सत्संग भी दुर्लभ होता है और सत्संग से मनुष्य के विकार नष्ट हो जाते है!

सत्संग में बतायी जाने वाली बातों को जीवन मे धारण करने पर ही आनंद की प्राप्ति और प्रभु से प्रीति होती है।


भागवत के ग्यारहवें स्कंध मे भगवान उद्धव से कहते हैं कि संसार के प्रति सभी आसक्तियां सत्संग नष्ट कर देता है। भगवान कहते हैं की हे उद्धव,,मै यज्ञ,,वेद तीर्थ,तपस्या ,त्याग से वश मे नही होता। लेकिन सत्संग से मै जल्दी ही भक्तों के वश मे हो जाता हूं।

इसलिए सत्संग की बहुत महिमा है। जीवन मे सत्संग को हमेशा बनाए रखना चाहिये और जब भी, जहां भी सत्संग सुनने या जाने का अवसर उपलब्ध हो, उसे गवाना नहीं चाहिए!

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