गंगा-सागर
एक बार.
गंगा सागर को तीर्थों का शिरोमणि कहा जाता है। गंगा सागर का अन्य तीर्थों की अपेक्षाकृत अधिक महत्व है। संभवत: यही कारण है कि जन साधारण में यह कहावत बहुत प्रचलित है कि- "सब तीरथ बार-बार, गंगा सागर एक बार।"
गंगा नदी जिस स्थान पर समुद्र में मिलती है, उसे गंगा सागर कहा गया है। गंगा सागर, बहुत सुंदर वन द्वीप समूह है, जो बंगाल की दक्षिण सीमा में बंगाल की खाड़ी पर स्थित है। प्राचीन समय में इसे पाताल लोक के नाम से भी जाना जाता था। कलकत्ते से यात्री प्रायः जहाज में गंगा सागर जाते हैं।
यहां मेले के दिनों में काफी भीड़-भाड़ व रौनक रहती है। लेकिन बाकी दिनों में शांति एवं एकाकीपन छाया रहता है। तीर्थ स्थान-सागर द्वीप में केवल थोड़े से साधु ही रहते हैं। यह अब वन से ढका और प्रायः जनहीन है। इस सागर द्वीप में जहां गंगा सागर मेला होता है, वहां से एक मील उत्तर में वामनखल स्थान पर एक प्राचीन मंदिर है।
जहां गंगा सागर पर मेला लगता है, पहले यहीं गंगाजी समुद्र में मिलती थी, किंतु अब गंगा का मुहाना पीछे हट गया है। वर्तमान में गंगा सागर के पास गंगाजी की एक छोटी धारा समुद्र से मिलती है। आज यहां सपाट मैदान है और जहां तक नजर जाती है, वहां केवल घना जंगल।
मेले के दिनों में गंगा के किनारे पर मेले के लिए स्थान बनाने के लिए इन जंगलों को कई मीलों तक काट दिया जाता है। गंगा सागर का मेला “मकर संक्रांति-पर्व” में लगता है। खाने-पीने के लिए होटल, पूजा-पाठ की सामग्री व अन्य सामानों की भी बहुत-सी दुकानें खुल जाती हैं।
सारे तीर्थों का फल अकेले गंगा सागर में मिल जाता है। संक्रांति के दिन गंगा सागर में स्नान का महात्म्य सबसे बड़ा माना गया है। प्रातः, दोपहर स्नान और मुण्डन-कर्म होता है। यहां पर लोग श्राद्ध व पिण्डदान भी करते हैं।
कपिल मुनि के मंदिर में जाकर दर्शन करते हैं, इसके बाद लोग लौटते हैं और पांचवें दिन मेला समाप्त हो जाता है। गंगा सागर से कुछ दूरी पर कपिल ऋषि का सन् 1973 में बनाया गया नया मंदिर है, जिसमें बीच में कपिल ऋषि की मूर्ति है।
उस मूर्ति के एक तरफ राजा भगीरथ को गोद में लिए हुए गंगाजी की मूर्ति है तथा दूसरी तरफ राजा सगर तथा हनुमान जी की मूर्ति है। इसके अलावा यहां सांख्य योगाचार्य कपिलानंदजी का आश्रम, महादेव मंदिर, योगेंद्र मठ, शिव शक्ति-महानिर्वाण आश्रम और भारत सेवाश्रम संघ का विशाल मंदिर भी हैं।
रामायण में एक कथा मिलती है, जिसके अनुसार कपिल मुनि किसी अन्य स्थान पर तपस्या कर रहे थे। तत-समय अयोध्या के सूर्यवंशी राजा सगर अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे। उनके अश्वमेध यज्ञ से डरकर इंद्र ने राक्षस रूप धारण कर यज्ञ के अश्व को चुरा लिया और पाताल लोक में ले जाकर कपिल के आश्रम में बांध दिया।
राजा सगर की दो पत्नियां थीं- केशिनी और सुमति। केशिनी के गर्भ से असमंजस पैदा हुआ और सुमति के गर्भ से साठ हजार पुत्र। असमंजस बड़ा ही उद्धत प्रकृति का था। वह प्रजा को बहुत पीड़ा देता था। अतः सगर ने उसे अपने राज्य से निकाल दिया था।
अश्वमेध का घोड़ा चुरा लिये जाने के कारण सगर बड़ी चिंता में पड़ गये। उन्होंने अपने साठ हजार पुत्रों को अश्व ढूंढने के लिए कहा। साठों हजार पुत्र अश्व ढूंढते ढूंढते-ढूंढते पाताल लोक में पहुंच गये। वहां उन लोगों ने कपिल मुनि के आश्रम में यज्ञीय अश्व को बंधा देखा। उन लोगों ने मुनि कपिल को ही चोर समझकर अपमान किया। अपमान से क्षुब्ध होकर ऋषि कपिल ने सभी को शाप दिया- 'तुम लोग भस्म हो जाओ।
शाप मिलते ही सभी भस्म हो गये। पुत्रों के आने में विलंब देखकर राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान, जो असमंजस का पुत्र था, को पता लगाने के लिए भेजा। अंशुमान खोजते-खोजते पाताल लोक पहुंचा। वहां अपने सभी चाचाओं को भस्म रूप में परिणत देखा और पता लगाया तो सारी स्तिथि समझ आ गई।
उसने, कपिल मुनि की स्तुति कर प्रसन्न किया। कपिल मुनि ने उसे घोड़ा ले जाने की अनुमति दे दी और यह भी कहा कि यदि राजा सगर का कोई वंशज, गंगा को वहां तक ले आये तो सभी का उद्धार हो जाएगा। अंशुमान घोड़ा लेकर अयोध्या लौट आया। यज्ञ समाप्त होने के पश्चात राजा सगर ने 30 हजार वर्षों तक राज्य किया और अंत में अंशुमान को राजगद्दी देकर स्वर्ग सिधार गये। अंशुमान ने गंगा को पृथ्वी पर लाने का काफी प्रयास किया, किन्तु सफल नहीं हो पाया। अंशुमान के पुत्र दिलीप ने भी दीर्घकाल तक तपस्या की, लेकिन वह भी सफल नहीं हो पाया।
दिलीप के पुत्र भगीरथ ने घोर तपस्या की। तब जाकर गंगा ने आश्वासन दिया कि मैं पृथ्वी पर आऊंगी, लेकिन जिस समय मैं स्वर्गलोक से पृथ्वी पर आऊंगी, उस समय मेरे प्रवाह को रोकने के लिए कोई सहारा होना चाहिए।
भगीरथ ने इसके लिए भगवान शिव को प्रसन्न किया। भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटा में धारण कर लिया। भगीरथ ने उन्हें पुनः प्रसन्न किया तो शिवजी ने गंगा को छोड़ दिया।
शिवजी के मस्तक से गंगा सात स्रोतों में भूमि पर उतरी। ह्रानिदी, पावनी और नलिनी नामक तीन प्रवाह पूर्व की ओर चल गये, वडक्ष, सीता तथा सिंधु नामक तीन प्रवाह पश्चिम की ओर चले गये और अंतिम एक प्रवाह भगीरथ के बताए हुए मार्ग से आगे बढ़ा।
भगीरथ पैदल गंगा के साथ नहीं चल सकते थे, अतः उन्हें एक रथ दिया गया। भगीरथ गंगा को लेकर उसी जगह आये जहां उनके प्रपितामह आदि भस्म हुए थे। गंगा सबका उद्धार करती हुई सागर में मिल गयी। भगीरथ द्वारा लाये जाने के कारण गंगा का एक नाम भागीरथी भी पड़ा।
जहां भगीरथ के पितरों का उद्धार हुआ, वही स्थान सागर द्वीप या गंगासागर कहलाता है।
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