साक्षी-भाव.


साक्षी-भाव.

उपनिषद के अनुसार “साक्षी-भाव” से ईश्वर प्रत्येक मानव के साथ रहता हैं. स्पष्ट यह भी किया गया हैं कि साक्षी-भाव से रहकर मानव के कार्यों की निगरानी करता हैं. अनुदेश यह भी कहता हैं कि मानव को नियति के कर्म में भी साक्षी-भाव जैसा व्यवहार अपनाना चाहिए क्योकि ईश्वरीय विधान अर्थात कर्म का प्रतिफल अटल सिध्यांत हैं. कर्म करने की बाध्यता नैमित्तिक कर्म के लिए हैं, प्रतिफलित कर्म के लिए लिए नहीं हैं. जैसे सजा हो जाने पर नैमित्तिक कर्म के अधीन अपील, दया-याचिका आदि तो की जा सकती हैं किन्तु जेल तोड़कर भागने का कर्म नहीं किया जा सकता, क्योकि ऐसा करने से और सजा के लिए नये अपराध का जन्म हो जाता हैं. साक्षी भाव में दुराग्रह की प्रतिक्रिया का अभाव हैं. जो लोग कर्म करते रहने सम्बन्धी धर्म-आदेश की ओर इशारा करते हुए, यह कहते और मानते हैं कि कर्म बाध्यता हर परिस्तिथि में अनिवार्य हैं, वे साक्षी भाव को नकारते ही नहीं बल्कि धर्म विरुद्ध आचरण भी करते हैं. उनका कार्य जेल तोड़कर भागने जैसा ही हैं.

धर्म के सूत्र स्पष्ट और पूर्ण समझाईस लिए हुए है. अंतर केवल वहीँ पड़ता हैं, जब मानव स्वाध्याय नहीं करता और थोडा-बहुत पढ़कर अपनी तर्क-बुध्दी से जोड़-घटाना करने लगता हैं.

कोई टिप्पणी नहीं: