मनुष्य के अंदर इस
तरह के बीज डालें,
तो बेहतर इंसान बनेंगे.
(सुधांशु जी महाराज)
प्रकृति ने जिनको जिस रूप में उत्पन्न किया है, उसी रूप में वे वस्तुएं प्राकृतिक कहलाती हैं और मनुष्य द्वारा परिष्कृत और संशोधित हो जाने पर कालान्तर में उन्हें सांस्कृतिक कहा जाता है। पर्वत, पठारों से बहने वाले झरने व नदियां प्राकृतिक हैं और सिंचाई के लिए बनाए गए कुंआ, तालाब व नहरें सांस्कृतिक हैं।
प्रकृति के द्वारा उत्पन्न फल, फूल, कंदमूल आदि भी प्राकृतिक हैं लेकिन जब इन्हें कूट-पीसकर एवं स्वादिष्ट व्यंजन का रूप दे दिया जाता है तो संस्कृतिमय हो जाते हैं। मनुष्य के रूप में जन्म लेना प्राकृतिक होता है। लेकिन जब उसे अच्छी शिक्षा-दीक्षा व सदाचरणों के संस्कारों से सुसंस्कारित कर दिया जाता है तो वह खुद का कल्याण करते हुए समाज के लिए उपयोगी हो जाता है और यही परिवर्तन होना उसके संस्कारों का परिणाम होता है।
वह अपनी संस्कृति का नायक कहलाता है। लेकिन किसी कारणवश अगर मनुष्य अपनी प्रकृति से भी न जुड़े और संस्कृति को भी न अपनाए तो उसके अन्दर विकृति का जन्म हो जाता है। विकृति का अर्थ है कि मनुष्य अपने मानवीय मूल्यों से कट जाता है। प्रेम, प्यार, सौहार्द, सद्भावना, संवेदनशीलता आदि सद्गुणों का उसके अन्दर अभाव हो जाता है। फिर उसका जीवन घर-परिवार और समाज से अलग-सा हो जाता है।
किसी भी क्षेत्र में चाहे घर-परिवार हो, समाज या राष्ट्र हो हर जगह तालमेल की जरूरत होती है। यदि आपस में तालमेल बैठाना आ गया तो जीवन खुशियों से भर जाएगा। यह तालमेल की स्थिति तभी बन पाती है जब इंसान के अन्दर सद्गुण और अच्छे संस्कार होते हैं।
यदि वह शुभ संस्कारों में संस्कारित नहीं हुआ तो उसकी सभी जगह तू-तू, मैं-मैं होती रहेगी और इसी में वह अपने जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ गंवा देगा। इसलिए जरूरी है कि इंसान में सद्गुणों और शुभ संस्कारों के बीज डाले जाएं।
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