परहित सरिस धर्म नहीं
भाई.
राजा धर्मदेव प्रजा के कल्याण के लिए तत्पर रहा करते थे। पड़ोसी राजा की मृत्यु के बाद उसका बड़ा बेटा राजा बना, जो अयोग्य था। उसकी अक्षमता देखकर राजा धर्मदेव सोचने लगे कि वह अपने तीनों पुत्रों में से जो पारखी होगा, उसे उत्तराधिकारी घोषित करेंगे।
राजा ने तीनों पुत्रों की योग्यता परखने का निश्चय किया। उन्होंने तीनों को किसी सच्चे धर्मात्मा को खोजकर लाने को कहा। बड़ा पुत्र एक सेठ को साथ लेकर लौटा। उसने बताया, यह खुलकर दान देते हैं। इन्होंने अनेक मंदिर बनवाए हैं। यह सुनकर राजा ने सेठ को ससम्मान विदा कर दिया।
दूसरा पुत्र एक ब्राह्मण को साथ लेकर लौटा। उसने बताया, पंडित जी वेद-शास्त्रों के परम ज्ञाता हैं। राजा ने पंडित जी को भी ससम्मान विदा कर दिया।
तीसरा पुत्र एक सीधे-से दिखने वाले व्यक्ति को लेकर लौटा। उसने बताया, यह व्यक्ति सड़क पर घायल पड़े एक वृद्ध को हवा कर रहा था। होश आने पर इसने अपनी झोपड़ी से दूध लाकर उसे पिलाया। मैंने जब इससे पूछा कि क्यों ऐसा कर रहे हो, तो इसने बताया कि बीमार व घायल की सेवा करना इसका धर्म है।
राजा ने उस व्यक्ति से पूछा, क्या तुम धर्म-कर्म करते हो? उसने कहा, महाराज, मैं अनपढ़ किसान हूं। मेरी मां बताया करती थी कि सेवा-सहायता से बड़ा कोई दूसरा धर्म नहीं है। यह सुनते ही राजा समझ गए कि तीसरा पुत्र ही योग्य और पारखी है।
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