फिर ठगा गए-देवर्षि नारद

फिर ठगा गए-देवर्षि नारद.

भगवान् के द्वारिका में बहुत महल थे। एक बार देवर्षि नारद के मन में आया कि भगवान् श्रीकृष्णजी के पास बहुत महल आदि है, एक- आध हमको भी दे दें तो यहीं आराम से टिक जायें, नहीं तो इधर - उधर घूमते रहना पड़ता है।

नारदजी ने भगवान् से कहा - " भगवन! " आपके बहुत महल हैं, एक हमको दो तो हम भी आराम से रहें।

आपके यहाँ खाने - पीने का इंतजाम अच्छा ही है।

भगवान् ने सोचा कि यह मेरा भक्त है, विरक्त संन्यासी है। अगर यह कहीं राजसी ठाठ में रहने लगा तो थोड़े दिन में ही इसकी सारी विरक्ति भक्ति निकल जायेगी। हम अगर सीधा ना करेंगे तो यह बुरा मान जायेगा, लड़ाई झगड़ा करेगा कि इतने महल हैं और एकमहल नहीं दे रहे हैं।

भगवान् ने चतुराई से काम लिया, नारद से कहा " जाकर देख लें, जिस मकान में जगह खाली मिले, वही वह दे देंगे।"

नारद जी वहाँ चले खाली महल देखने के लिए। चमत्कार हो गया सभी महल भरे हुए थे। एक भी खाली नहीं मिला। कहीं कहीं तो निवासियों  को ही रहने की जगह  कम पड रही थी।

सब जगह नारदजी घूम आये और आकर भगवान् से कहा " वहाँ कोई जगह खाली नहीं मिली।"

भगवान् ने कहा - फिर क्या करूँ, होता तो दे देता। "

नारदजी के मन में आया कि यह तो भगवान् ने मेरे साथ धोखाधड़ी की है, नहीं तो कुछ न कुछ करके, किसी को इधर उधर खिसकाकर एक कमरा तो दे ही सकते थे। इन्होंने मेरे साथ धोखा किया है, तो अब मैं भी इन्हे मजा चखाकर छोडूँगा।

नारदजी रुक्मिणी जी के पास पहुँचे, रुक्मिणीजी ने नारद जी की आवभगत की, बड़े प्रेम से बैठाया।
उन दिनों भगवान् सत्यभामाजी के यहाँ रहते थे।

नारदजी ने उनको दान की कथा सुनाई और दान का महत्त्व सुनाने लगे कि जिस चीज़ का दान करोगे, वही आपको पुनर्जन्म में भी प्राप्त होगी।

जब नारद जी ने देखा कि यह बात रुक्मिणीजी को जम गई है तो उनसे पूछा " आपको सबसे ज्यादा प्रेम किससे है?

रुक्मिणीजी ने कहा " यह भी कोई पूछने की बात है, भगवान् हरि से ही मेरा प्रेम है।"

नारदजी ने फिर कहा- "आपकी यही इच्छा होगी कि अगले जन्म में भी वे मिलें।"

रुक्मिणीजी बोली " इच्छा तो यही है।"

नारदजी ने कहा " इच्छा है तो फिर दान कर दो, नहीं तो नहीं मिलेँगे। आपकी सौतें भी बहुत है और उनमें से किसी ने पहले दान कर दिया तो उन्हें मिल जायेंगे।  इसलिये दूसरे करें, इसके पहले आप ही करदे।

रुक्मिणीजी को बात जँच गई कि जन्म जन्म में भगवान् मिले, तो दान कर देना चाहियें।

रुक्मिणीजी से नारदजी ने संकल्प करा लिया।

अब क्या था, नारद जी का काम बन गया। वहाँ से सीधे सत्यभामाजी के महल में पहुँच गये और भगवान् से कहा कि " उठाओ कमण्डलु, और चलो मेरे साथ।"

भगवान् ने कहा " कहाँ चलना है, बात क्या हुई? "

नारद जी ने कहा " बात कुछ नहीं, आपको मैंने दान में ले लिया है। आपने एक कोठरी भी नहीं दी तो मैं अब आपको भी बाबा बनाकर पेड़ के नीचे सुलाउँगा।" सारी बात कह सुनाई।

भगवान् ने कहा " रुक्मिणी ने दान कर दिया, है तो ठीक है। वह पटरानी है, उससे मिल तो आयें।"

भगवान् ने अपने सारे गहने गाँठे, रेशम के कपड़े सब उतारकर, सत्यभामाजी को दे दिये और बल्कल वस्त्र पहनकर, भस्मी लगाकर, कमण्डलु लेकर वहाँ से चल दिये। उन्हें देखते ही रुक्मिणी के होश उड़ गये। पूछा " हुआ क्या? "

भगवान् ने कहा " पता नहीं, नारदजी कहते हैं कि “ मुझे दान कर दिया गया हैं”?

रुक्मिणीजी ने कहा " लेकिन वे कपड़े, गहने कहाँ गये, उत्तम केसर को छोड़कर यह भस्मी क्यों लगा ली?"

भगवान् ने कहा " जब दान दे दिया तो अब मैं नारदजी का हो गया। इसलिये अब वे ठाठबाट नहीं चलेंगे।
अब तो  मुझे भी नारदजी के साथ, उनके जैसे ही रहना पड़ेगा।

रुक्मिणीजी ने कहा " मैंने इसलिये थोड़े ही दिया था कि आपको अपने साथ ले जायें।"

भगवान् ने कहा " और दान काहे के लिये दिया जाता है? दान तो इसीलिये दिया जाता है कि जिसको दो, वह ले जाये।"

अब रुक्मिणीजी को होश आया कि यह तो गड़बड़ मामला हो गया।

रुक्मिणीजी ने कहा " नारदजी यह आपने मुझे पहले नहीं बताया, अगले जन्म में तो मिलेंगे तब मिलेंगे, किन्तु अब तो मैं अभी से ही भगवान् को खो रही हूँ। "

नारदजी ने कहा " अब तो जो हो गया सो हो गया, अब मैं ले जाऊँगा।"

रुक्मिणीजी बहुत रोने लगी। तब तक हल्ला गुल्ला मचा तो और सब रानियाँ भी वहा इकठ्ठी हो गई। उन्होंने कहा " भगवान् एक अकेले रुक्मिणी के पति थोड़े ही हैं, इसलिये रुक्मिणी को दान करने का अधिकार नहीं हो सकता, हम लोगों का भी अधिकार है।"

नारदजी ने सोचा अब तो मामला ही पलटा जा रहा हैं, कहने लगे " क्या भगवान् के टुकड़े कराओगे?


रानियों ने कहा " नारदजी कुछ तो विचार कर बाते कीजिये। 

नारदजी ने विचार किया कि अपने को तो महल ही चाहिये था और यही यह दे नहीं रहे थे, अब मौका ठीक है, समझौते पर बात आ रही है।

नारदजी ने कहा भगवान् का जितना वजन हैं, उतने का तुला-दान कर देने से भी, दान मान लिया जाता है। तुलादान से देह का दान माना जाता है, इसलिये भगवान् के वजन का सोना, हीरा, पन्ना और धन दे दो।"

इस पर सब रानियाँ राजी हो गई।

बाकी तो सब राजी हो गये लेकिन भगवान् ने सोचा कि यह फिर मोह में पड़ रहा है। इसका महल का शौक नहीं गया। कुछ सोचकर भगवान् ने कहा " तुलादान कर देना चाहिये, यह बात तो ठीक हे।"

भगवान् तराजु के एक पलड़े में बैठ गये। दूसरे पलड़े में सारे गहने, हीरे, पन्ने और धन रखा जाने लगा, लेकिन जो ब्रह्माण्ड को साथ लेकर बैठा हो, उसकी पूर्ति धन से संभव नहीं हैं। सारा का सारा धन दूसरे पलड़े पर रख दिया गया लेकिन जिस पलड़े पर भगवान बैठे थे, वह वैसा का वैसा रहा, ऊपर नहीं हुआ।

नारदजी ने कहा " देख लो, तुला तो बराबर हो नहीं रहा है, अब मैं भगवान् को ले जाऊँगा।"

सब कहने लगे " अरे कोई उपाय बताओ।"

नारदजी ने कहा " और कोई उपाय नहीं है।"

अन्य सब लोगों ने भी अपने अपने हीरे पन्ने लाकर डाल दिये फिर भी स्तिथि यथावत रहीं।

नारदजी मन मन ही प्रसन्न थे और उधर सभी रानियाँ शोर मचाये पड़ी थी। नारद जी प्रसन्नता के मारे मुग्ध होकर टहलने लगे।

रुक्मिणीजी ने भगवान् से कहा " कुछ तो उपाय निकालिये, आप इतना भार लेकर बैठ गये, हम लोगों का क्या हाल होगा? "

भगवान् ने कहा " ये सब हीरे पन्ने निकाल लो और तुलसी का एक पत्ता सहित सोने का एक छोटा सा टुकड़ा तराजू के दुसरे पल्ले में रख दो।

इतना सुनते ही रुक्मिणीजी ने दुसरे पल्ले में रखा सब समान हटा कर उसके स्थान में और एक छोटे से सोने के पतरे पर तुलसी का पत्ता रख, उसे तराजू के दुसरे पल्ले में रख दिया। ऐसा करते ही भगवान् जिस पल्ले में बैठे थे, वह ऊपर उठ गया।

अब सब रानियाँ प्रसन्न हो, नारदजी से कहा ले जाओ " तुला-दान।"

नारदजी ने सोचा, भगवान् यही चाहते है कि मैं जिस हाल में हूँ, वैसा ही रहूँ और शायद इसी में मेरी भलाई हैं, इसलिए सबको नमन कर बिना तुला दान लिए, हरि भजन करते हुए, वहां से प्रस्थान कर गए।

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