बृज-रज.


बृज-रज

श्री वृंदावन में एक विरक्त संत रहते थे, जिनका नाम था पूज्य सेवादासजी महाराज। सेवादास जी महाराज ने अपने जीवन मे किसी भी वस्तु का संग्रह नही किया था। एक लंगोटी, कमंडल, माला और शालिग्रामजी इतना ही साथ रखते थे। एक छोटी से कुटिया बना रखी थी जिसमे एक संदूक रखा हुआ था। संतजी बहुत कम ही कुटिया के भीतर बैठकर भजन करते थे, अपना अधिकतम समय वृक्ष के नीचे भजन मे व्यतीत करते थे। यदि कोई संत आ जाये तो कुटिया के भीतर उनका आसन लागा देते थे। एक समय वहां एक चोर आया और उसकी दृष्टि कुटिया के भीतर रखी उस सुंदर संदुक पर पडी। उसने सोचा कि अवश्य ही महात्मा को कोई खजाना प्राप्त हुआ होगा, जिसे यहां छुपा रखा है। महात्मा को धन का क्या काम? मौका पाते ही इसे चुरा लूंगा।

एक दिन बाबाजी कुटिया के पीछे भजन कर रहे थे। अवसर पाकर उस चोर ने कुटिया के भीतर प्रवेश किया और संदुक को तोड़ मरोड़ कर खोला। उस संदुक के भीतर एक और छोटी संदुक रखी थी। चोर ने उस संदुक को भी खोल तब देखा कि उसके भीतर भी एक और छोटी संदुक रखी है। ऐसा करते करते उसे कई संदुक प्राप्त हुई और अंत मे एक छोटी संदुक उसे प्राप्त हुई। उसने वह संदुक खोली और देखकर बडा दुखी हो गया। उसमे केवल मिट्टी रखी थी। अत्यंत दुख में भरकर वह कुटिया के बाहर निकल ही रहा था कि उसी समय सेवादासजी वहां पर आ गए। सेवादास जी ने चोर से कहा – तुम इतने दुखी क्यो हो? चोर ने कहा – इनती सुंदर संदुक मे कोई क्या मिट्टी भरकर रखता है? बड़े अजीब महात्मा हो।

सेवादासजी बोले – अत्यंतर श्रेष्ठ मुल्यवान वस्तु को संदुक मे ही रखना तो उचित है। चोर बोला – ये मिट्टी कौनसी मूल्यवान वस्तु है? बाबा बोले – ये कोई साधारण मिट्टी नही है, यह तो पवित्र श्रीवृंदावन रज है। यहां की रज के प्रताप से अनेक संतो ने भगवान् श्रीकृष्ण को प्राप्त किया है। यह रज प्राप्त करने के लिए देवता भी ललचाते है। यहां की रज को श्रीकृष्ण के चरण कमलों का स्पर्श प्राप्त है। श्रीकृष्ण ने तो इस रज को अपनी श्रीमुख मे रखा है। चोर को बाबा की बात कुछ अधिक समझ नही आयी और वह कुटिया से बाहर जाने लगा। बाबा ने कहा – सुनो ! इतना कष्ट करके खाली हाथ जा रहे हो, मेहनत का फल भी तो तुम्हे मिलना चाहिए। चोर ने कहा – क्यों हँसी मजाक करते है, आप के पास देने के लिए है भी क्या?

सेवादास जी कहने लगे -मेरे पास तो देने के लिए कुछ है, नही परंतु इस ब्रज रज मे सब कुछ प्रदान करने की सामर्थ्य है। चोर बोला – मिट्टी किसी को भला क्या दे सकती है? विश्वास हो तो यह रज स्वयं प्रभु से मिला सकती है। चोरी करना तो तुम्हारा काम धंदा है और महात्मा के यहां से खाली हाथ जाएगा तो यह भी ठीक नही। जाते जाते यह प्रसाद लेकर जा। इतना कहकर सेवादास जी ने थोड़ी सी बृज -रज लेकर उसे चोर के माथे पर लगा दिया। माथे पर रज का स्पर्श होते ही वह चोर भाव मे भरकर भगवान् के पवित्र नामो का उच्चारण करने लगा – श्री राधा कृष्ण, केशव, गोविंद गोविंद उसका हृदय निर्मल हो गया और वह महात्मा के चरणों मे गिर गया। महात्मा ने उसे हरिनाम जप और संत सेवा का उपदेश दिया देकर उसका जीवन कृष्णमय बना दिया।

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