सज्जनता बड़ी है या ईश्वर-शक्ति.
दिन बीते। राजा एक दिन परिभ्रमण के लिये निकले। दुर्भाग्य से मार्ग में किसी आखेट जाति ने उन पर आक्रमण कर दिया। आक्रमण के फलस्वरूप उनका शेष सहयोगियों से सम्बन्ध टूट गया। वे निबिड़ वन में भटक गये जंगल में प्यास के मारे राजा का दम घुटने लगा। कही पानी दिखाई नहीं दे रहा था। किसी तरह एक साधु की पर्णकुटी तक पहुँचें। साधु समाधि मग्न थे। वहाँ पहुँचते पहुँचते महाराज मूर्छित होकर गिर पड़े। गिरते गिरते उन्होंने पानी के लिये पुकार लगाई।
कुछ देर बाद जब मूर्छा दूर हुई तो महाराज विक्रमादित्य ने देखा, वही सन्त उनका मुँह धो रहे, पंखा झल रहे और पानी पिला रहे है। राजा ने विस्मय से पूछा-आपने मेरे लिये समाधि क्यों भंग की, उपासना क्यों बन्द कर दी?” सन्त मधुर वाणी में बोले-वत्स-भगवान की इच्छा है कि उनके संसार में कोई दीन दुःखी न रहे। उनकी इच्छा पूर्ति का महत्व अधिक है, सेवा सज्जनता भी उनकी भक्ति ही है।” इस उत्तर से राजा का पूर्ण समाधान हो गया।
(अखंड ज्योति- January 1969)
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