विचार, वचन और व्यवहार.


विचार, वचन और व्यवहार.
(आचार्य महाप्रज्ञ)


दुनिया में अनंत प्राणी हैं। इतने कि गिनती नहीं की जा सकती। इन सब जीवों में मनुष्य एक प्राणी है। उसकी अपनी विशेषताएं हैं। जो विशेषताएं मनुष्य में हैं , वे दूसरे प्राणियों में नहीं हैं। मनुष्य की अपनी तीन मौलिक विशेषताएं हैं - विचार , वचन और व्यवहार। विचार करने की जो क्षमता मनुष्य में है , वह किसी दूसरे प्राणी में नहीं है। वचन की जो शक्ति मनुष्य में है , वह किसी दूसरे प्राणी में नहीं है। व्यवहार की क्षमता भी जैसी मनुष्य में है , वैसी किसी प्राणी में नहीं है। ये तीन ऐसे गुण हैं , ये तीन ऐसी विशेषताएं हैं , जो मनुष्य को शेष जगत के सारे प्राणियों से अलग कर देती हैं। उसकी अलग पहचान बनाती हैं। चिंतन मनुष्य की अपनी विशेषता है। वह जितना सोचता है , चिंतन करता है , वह एक विलक्षण बात है। अपने चिंतन के बल पर उसने बहुत विकास किया है। उसने अपने चिंतन से इस जगत का स्वरूप बदल दिया है। वैज्ञानिक सभ्यता के इस युग में आदमी कहां से कहां पहुंच गया है। विचार ने साहित्य को जन्म दिया , कला को जन्म दिया , सैकड़ों - सैकड़ों नई शाखाओं को जन्म दिया। सब कुछ विचार के कारण हुआ। विचार शक्ति ने एक नई सृष्टि की और वह मनुष्य की मौलिक विशेषता बन गई। मनुष्य की दूसरी विशेषता है : वचन। पशु - पक्षी भी बोलते हैं , किंतु उनकी कोई विशेष भाषा नहीं है। उनका शब्द कोश बहुत सीमित है। उनके शब्द कोश से एक पृष्ठ भी पूरा नहीं भर पाता। किसी की भाषा में छह शब्द हैं , किसी की भाषा में पांच शब्द हैं और किसी की भाषा में दस शब्द हैं। मनुष्य ने अपनी भाषा के कोश का इतना विस्तार किया कि लाखों - लाखों शब्द बन गए। अगर संयोगी शब्दों का संग्रह करें तो करोड़ों शब्दों का कोश बन जाए। केवल एक ही भाषा का नहीं , बल्कि संस्कृत , प्राकृत , जर्मन , अंग्रेजी , रशियन आदि दुनिया की अनेक भाषाओं के बहुत विशाल शब्द कोश हैं। ये सब मनुष्य की वाचन शक्ति के कारण संभव बने हैं। उसने बोलने के तरीकों का विकास किया है। कैसे बोलना चाहिए , कैसे गाना चाहिए। मनुष्य की तीसरी विशेषता है - व्यवहार। एक भैंसा हजार वर्ष पहले जैसा व्यवहार करता था , वह आज भी वैसा ही व्यवहार करता है। हजारों वर्ष पहले भी वह गाड़ी से जुतता था , आज भी वह गाड़ी से जुतता है। उसके व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया। उसे गुस्सा आता है , तो गुस्से का प्रदर्शन करता है और किसी को मार डालता है। संाप हजार वर्ष पहले भी फुफकारता था , आज भी फुफकारता है। हजार वर्ष पहले भी डंसता था , आज भी डंसता है। उसके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं। मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है , जिसने अपने व्यवहार में परिवर्तन किया है , उसका परिष्कार किया है। आज व्यवहार की कितनी शाखाएं बन गई हैं , कितने शास्त्र बन गए हैं , व्यवहार मनोविज्ञान का एक अलग शास्त्र ही बन गया है। व्यवहार के आधार पर विधि - निषेधों का एक अंबार खड़ा हो गया। क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए - इन दो शब्दों - विधि और निषेध पर विशाल साहित्य रचा गया। विधि शास्त्र और निषेध शास्त्र का व्यापक विकास हुआ। सन्मति तर्क की टीका में एक सुंदर प्रसंग आता है व्यवहार का। पूछा गया - व्यवहार क्या है ? उत्तर दिया गया - व्यवहार त्रयात्मक होता है। उसके तीन अंग हैं - प्रवृत्ति , निवृत्ति और उपेक्षा। किसी कार्य में प्रवृत्ति , किसी कार्य से निवृत्ति और किसी कार्य की उपेक्षा व्यवहार के ये तीन आधार हैं। मनुष्य ने अपने सारे व्यवहार को तीन भागों में विभक्त कर दिया। जो अच्छा नहीं है , उसे छोड़ता है। जो उपादेय है , उसमें प्रवृत्ति करता है। जो उपेक्षणीय है , उसकी उपेक्षा करता है। हमारे सारे व्यवहार इन्हीं तीनों श्रेणियों में समाहित हैं।

कोई टिप्पणी नहीं: