अधिकार और कर्तव्य की वास्तविक स्थिति.


अधिकार और कर्तव्य की
वास्तविक स्थिति.

”अधिकार' अभाव और पतन का तथा 'कर्तव्य' समृध्दि और उत्थान का एकमात्र हेतु हैं”

भगवत् कृपा विशेष से और 'तत्त्वज्ञान' के प्रभाव से जहाँ तक हमारी जानकारी और समझ है, वहाँ तक तो हम यही समझ पा रहे हैं कि हमें कर्तव्य-कर्म का अवसर मिले, यही हमारा सबसे बड़ा अधिकार होना चाहिए। पुन: मिले हुए कर्तव्य कर्म को ईमान और सच्चाई से संयमपूर्वक लगन के साथ अपनी क्षमता से भी कुछ आगे बढ़कर श्रम करते हुए दिखलायें ताकि अगले बार हमें और ही अधिक कर्तव्य कर्म की प्राप्ति होवे, क्योंकि जस-जस कर्तव्य कर्म बढ़ायेंगे, पीछे-पीछे अधिकार को भी बढ़ना ही है। कहा भी गया है कि ''कर्तव्य का फल सदा ही मीठा होता है''। कर्तव्य कर्म का फल सदा ही श्रेष्ठ और उत्तम हुआ करता है, जिससे कर्तव्य-कर्म के पालन करने वाले को उसका फल मिलता ही है और यह फल ही तो अधिकार है जो कर्तव्य के पीछे बिन माँगे ही मिलता ही रहता है। इसलिये हर किसी को ईमान और सच्चाई से लगनपूर्वक लगन से किये हुये अपने कर्तव्य कर्म मात्र को ही देखते व करते रहना चाहिये।

यदि कर्तव्य-कर्म का फल तत्काल नहीं भी मिले तो भी उससे घबड़ाना नहीं चाहिये। पूर्णत: विश्वास एवं भरोसा के साथ अपने कर्तव्य कर्म के फल का बोझ दैवी-विधान और भगवान्, जो सृष्टि का कर्ता-भर्ता-हर्ता है, पर छोड़ते ज़ाना चाहिये। ऐसा करने पर वह प्रकृति और पुरुष यानी भगवान् किसी न किसी रूप में उस फल को कर्तव्य कर्म करने वाले को देता ही रहता है। अत: कर्तव्य कर्म ही हमारा मूल अधिकार होना चाहिये।

सद्भावी मानव बन्धुओं! अधिकार की तरफ देखना, अधिकार की माँग करना, अधिकाधिक अधिकार हेतु लड़ाई और अधिक अधिकार या फल (वेतन आदि) के लिये हड़ताल आदि करना-कराना आदि-आदि बातों व कार्यों को थोड़ा भी ध्यान देकर मनन चिन्तन किया जाय तो परिणाम यही निकलेगा कि अधिकार के तरफ देखने से हमारा कर्तव्य कर्म भी छूटता जाता है अर्थात् हम कर्तव्य कर्म से उस मात्रा तक तो बंचित हो ही जाते हैं जिस मात्रा तक अधिकार को देखने में लगे रहते हैं। जरा ईमान से सोचिए समझिए तो सही कि कर्तव्य के बिना अथवा कर्तव्य से अधिक अधिकार की चाह और प्राप्ति क्या बेईमानी नहीं है? निश्चित ही बेईमानी ही है जो बिल्कुल ही त्याज्य होती है ।

हम यह नहीं कहते कि आप मानव बन्धु हमारे इस बात को मानें ही क्योंकि यह बात तो आज की स्थिति-परिस्थिति के बिल्कुल ही विपरीत लग रही है फिर भी मैं इतना तो आप बन्धुओं से अवश्य आग्रह करूँगा और आग्रह ही नहीं, साग्रह निवेदन भी करूँगा कि थोड़ा सा भी तो आप भी सोचें-समझें,क्योंकि भगवान् ने हम सभी लोगों को थोड़ा बहुत सोचने-समझने हेतु दिल-दिमाग तथा बुध्दि और विवेक भी तो दिया है कि हमलोग अपनी क्षमता भर समझ-बूझ के साथ ही अगला कदम रखें। इसलिये हमें-थोड़ा बहुत अवश्य सोचना-समझना चाहिये कि क्या हम कोई कर्तव्य-कर्म ईमान और सच्चाई से संयमपूर्वक लगन एवं परिश्रम के साथ करेंगे तो उसका फल नहीं मिलेगा ? ऐसा कदापि हो ही नहीं सकता है । यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाय कि थोड़े देर या कुछ दिन व माह-वर्ष फल(पारिश्रमिक) नहीं ही मिलता है तो क्या इसका फल समाप्त हो जाता है? नहीं ! नहीं !! कदापि नहीं !!!बल्कि वह इकठ्ठा हो रहा है। इसे एक-न-एक दिन मिलना ही है। अवश्य ही मिलना है। सब जोड़-बटोर कर मिलना है। नहीं यहाँ तो वहाँ । नहीं इस जनम में तो अगले जनम में, मिलना ही है ! दैवी विधान भी उसे रोक या समाप्त नहीं कर सकता है, मानवीय विधान को कौन कहे!

हमें अपने कर्तव्य कर्म पर पूर्ण विश्वास एवं भरोसा होना-रखना चाहिये। यदि कठिन स्थिति-परिस्थिति भी सामने आती है तो उसे भगवत् कृपा समझकर सहर्ष झेल लेना चाहिये, परन्तु अपने विश्वास एवं भरोसा में सन्देह और निराश नहीं होना चाहिये ।इन्सान भगवान् को जाने-देखे नहीं या समझे नहीं, तो कोई बात नहीं, परन्तु भगवान् तो हम सभी केकर्तव्य कर्मों या हमारे दिल की गोपनीय से गोपनीय बातों से भी परिचित है। उन्हें भी वही अच्छी प्रकार ही जानता-देखता व समझता भी है क्योंकि सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ जानकार, सर्वश्रेष्ठ द्रष्टा, सर्वश्रेष्ठ समझ वाला और सर्वसमर्थ भी एक मात्र वही खुदा-गॉड-भगवान् ही है। इस प्रकार हमें उस खुदा-गॉड-भगवान के प्रति विश्वास एवं भरोसा में थोड़ा भी संदेह की गुंजाइश नहीं रखनी चाहिये।

इन सभी बातों पर मनन-चिन्तन करते हुये ध्यान दिया जायेगा तो निश्चित ही यह बात समझ में आ जायेगी कि हमें किसी भी स्थिति-परिस्थिति में अपने कर्तव्य कर्म से आलस्य एवं प्रमाद या किसी भी कारण से अपने को बंचित नहीं रखना चाहिए। दूसरे तरफ थोड़ा भी तो सोचें कि बिना कर्म का कोई फल या अधिकार कभी भी बनता है, तो अवश्य समझ में आ जायेगा नहीं कदापि नहीं । हमारा एकमात्र अधिकार कर्तव्य कर्म को करने में ही है, अधिकार को देखने में नहीं, क्योंकि अधिकार को कर्तव्य कर्म के पीछे रहना ही रहना है। अधिकार देखने से तो पतन और अभाव ही होता जाता है जबकि कर्तव्य को देखने-करते रहने से विकास-उत्थान और समृध्दि होना ही होना है । अब आप ही निर्णय लें कि दोनों में से किसे अपनाना श्रेष्ठतर-श्रेयस्कर होगा ? वही करें। नि:सन्देह कर्मठता विकास-समृध्दि की जननी है।


( श्रध्येय सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस)



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