वाणी तो अनमोल हैं, जो कोई जाने बोल.


वाणी तो अनमोल हैं,जो कोई जाने बोल.

धर्मशास्त्रों में वाणी संयम को श्रेष्ठ तप बताया गया है। धर्माचार्यों और संत-महात्माओं ने भी सदैव सत्य और मृदु वचन बोलने की प्रेरणा दी है। उपनिषदों में कहा गया है, तत सत्ये प्रतिष्ठितम् यानी ब्रह्म सदा सत्य से प्रतिष्ठित होता है। सत्य पर अटल रहने, वाणी से मृदु, प्रेम भरे वचन उच्चारित करने से मानव सभी को मित्र-हितैषी बनाने में सफल होता है।

मनु ने कहा है, सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यम प्रियम्, प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः।। अर्थात, सत्य बोलें, प्रिय बोलें, अप्रिय सत्य न बोलें, प्रिय बोलने में भी असत्य न बोलें- यही शाश्वत धर्म है। वेदों में लिखा है, जिह्वाया अग्रे मधु मे- अर्थात, मेरी जिह्वा के अग्रभाग पर माधुर्य हो। मैं मधुर बोलूं।

गोस्वामी तुलसीदास तो मीठे वचनों को वशीकरण मंत्र बताते हुए कहते हैं- तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुंओर। वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।। अर्थात, आवेश में कठोर वचन बोलकर मनुष्य न केवल दूसरे के हृदय को दुख पहुंचाने के पाप का भागी बनता है, अपितु पग-पग पर शत्रु पैदा कर लेता है।

वाणी से निकले कटु वचन का घाव कभी नहीं भरता। इसलिए संत कबीरदास ने कहा है- ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय।। इसलिए सभी विभूतियों ने वाणी के संयम और मधुरता पर बहुत बल दिया है।

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