नववर्ष की शुभकामनायें विक्रम संवत-२०७५
शिवाजी महाराज की गुरुभक्ति.
छत्रपति शिवाजी महाराज अपने गुरुदेव समर्थ रामदास स्वामी के एकनिष्ठ भक्त थे, इसलिए समर्थ भी अन्य शिष्यों की अपेक्षा उनसे अधिक प्रेम करते थे। यह देख अन्य शिष्यों को लगा, ‘‘शिवाजी के राजा होने से ही समर्थ उनसे अधिक प्रेम करते हैं!’’ समर्थ रामदासस्वामी ने यह भ्रम त्वरित दूर करने का संकल्प लिया। वे अपने शिष्यगणों के साथ वनों में गए। वहां वे रास्ता खो बैठे। इसके साथ समर्थ एक गुफा में पेट की पीडा का नाटक कर कराहते हुए सो गए। आने पर शिष्यों ने देखा कि गुरुदेव पीडा से कराह रहे हैं। शिष्यों ने इस पर उपाय पुछा। समर्थ द्वारा उपाय बताने पर सभी शिष्य एक दूसरे के मुंह देखने लगे। जिस प्रकार दुर्बल मानसिकता एवं ढोंगी भक्तों की अवस्था होती है, बिल्कुल ऐसा ही गंभीर वातावरण बन गया।
छत्रपति शिवाजी महाराज समर्थ रामदासस्वामी के दर्शन को निकल पडे। उन्हें जानकारी मिली कि समर्थ इसी वन में कहीं होंगे। ढूंढते-ढूंढते वे इस गुफा की ओर आए। गुफा में पीडा से कराहने की ध्वनि सुनाई दी। भीतर जाकर देखने पर ज्ञात हुआ कि साक्षात गुरुदेव ही व्याकुल होकर सोए हैं। राजा शिवाजी ने हाथ जोडकर उनसे उनकी वेदना का कारण पूछा।
समर्थ : शिवा, पेट में असहनीय पीडा हो रही है।
शिवाजी महाराज : गुरुदेव, इस पर कुछ दवा?
समर्थ : शिवा, इस पर कोई दवा नहीं! यह असाध्य रोग है। केवल एक ही दवा काम कर सकेगी; परंतु जाने दो।
शिवाजी महाराज : गुरुदेव, निःसंकोच बताएं। अपने गुरुदेव को आश्वस्त (सुखी) किए बिना हम शांत बैठ नहीं पाएंगे।
समर्थ : मादा बाघ का दूध और वो भी ताजा! परंतु शिवा, उसका मिलना संभव नहीं!
शिवाजी महाराज ने उनके समीप का एक कमंडलू उठाया एवं समर्थ को वंदन कर वे तुरंत बाघिन को ढूंढने के लिए निकल पडे। कुछ दूर जाने पर एक स्थान पर बाघ के दो बच्चे दिखाई दिए। राजा शिवाजी ने सोचा, ‘‘इनकी मां भी निश्चित रूप से यहीं कहीं निश्चित होगी।’ ’ संयोग से (दैवयोगसे) उनकी मां वहां आई। अपने बच्चों के पास अपरिचित व्यक्ति को देख वह उन पर गुर्राने लगी। राजा शिवाजी स्वयं उस बाघिन से लडने में सक्षम थे; परंतु इस स्थिति में वे लडना नहीं चाहते थे अपितु केवल बाघिन का दूध चाहते थे। उन्होंने धैर्य के साथ हाथ जोडकर बाघिन से विनती की, ‘‘माता, हम यहां आपको मारने अथवा आपके बच्चों को कष्ट पहुंचाने नहीं आए। हमारे गुरुदेव का स्वास्थ्य सुधारने के लिए हमें आपका दूध चाहिए, वह हमें दे दो, उसे हम अपने गुरुदेव को देकर आते हैं। तदुपरांत तुम भले ही मुझे खा जाओ।’’ ऐसा कहकर राजा शिवाजी ने उसकी पीठ पर प्रेम से हाथ फिराया।
अबोल प्राणी भी प्रेम-पूर्ण व्यवहार से वश में होते हैं। बाघिन का क्रोध शांत हुआ एवं वह उन्हें बिल्ली समान चाटने लगी। अवसर देख राजा ने उसके स्तनों से कमंडलू में दूध भर लिया। उसे प्रणाम कर अत्यंत आनंद से उन्होंने वहां से प्रस्थान किया। गुफा में पहुंचने पर गुरुदेव के समक्ष दूध से भरा कमंडलू रख राजा ने गुरुदेव समर्थ को प्रणाम किया। ‘‘अंततः तुम बाघिन का दूध लाने में सफल हुए! तुम धन्य हो शिवा! तुम्हारे जैसे एकनिष्ठ शिष्य रहने पर गुरु की पीडी कैसे टिकी रहेगी?’’ गुरुदेव समर्थ ने राजा शिवाजी के शीश पर अपना हाथ रखकर अन्य उपस्थित शिष्यों की ओर देखा।
अतएव शिष्य समझ गए कि बह्मवेत्ता गुरु जब किसी शिष्य से प्रेम करते हैं, तो उसकी विशेष योग्यता होती है। वह उनकी विशेष कृपा का अधिकारी होता है। ईर्षा रखने से हमारी दुर्गुण एवं दुर्बलता बढती हैं। इसलिए ऐसी विशेष कृपा का अधिकारी होने वाले अपने गुरुबंधु के प्रति ईर्षा रखने की अपेक्षा हमें हमारी दुर्बलता एवं दुर्गुण नष्ट करने के लिए तत्पर रहना चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें