संस्कार.
एक पंडित दीनदयाल नामक ब्राह्मण थे, बेंक मे नौकरी करते थे। उन के यहाँ पहला लड़का हुआ तो पत्नी सावित्री ने कहा बच्चे को गुरुकुल में शिक्षा दिलवाते है, मैं सोच रही हूँ कि गुरुकुल में शिक्षा देकर उसे धर्म ज्ञाता पंडित बनाऊंगी।
दीनदयालजी ने पत्नी से कहा अरी भाग्यवान उसे पूर्ण धर्मज्ञाता बना कर भूखा मारना है, क्या?
मैं इसे बड़ा अफसर बनाऊंगा ताकि दुनिया में एक कामयाब इंसान बने। सावित्री धार्मिक थी और इच्छा थी कि बेटा पाण्डित्य पूर्ण योगी बने, लेकिन दीनदयाल जी नहीं माने।
कुछ सालो बाद दूसरा लड़का हुआ सावित्री ने जिद की, दीनदयालजी इस बार भी ना माने, फिर कुछ सालो बाद तीसरा लड़का हुआ, सावित्री ने फिर जिद की, लेकिन दीनदयालजी एक ही रट लगाते रहे कहा से खाएगा? और नही माने।
अबकी करीब पांच साल बाद चौथा लड़का हुआ इस बार सावित्री की जिद के आगे दीनदयालजी हार गए अंततः उन्होंने गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा दिलवाने के लिए वही भेज दिया।
अब धीरे धीरे समय का चक्र घूमा, जब बच्चे अपने पैरों पे मजबूती से खड़े हो गए। तीनों लड़के मेहनत करके सरकारी नौकरियां हासिल कर ली, पहला डॉक्टर, दूसरा बैंक मैनेजर, तीसरा एक प्रसिद्ध कंपनी मे नौकरी करने लगा।
एक दिन की बात है दीनदयालजी ने पत्नी से कहा -अरे भाग्यवान देखा, मेरे तीनो होनहार बेटे सरकारी पदों पर है, अच्छी कमाई भी कर रहे है। तीनो की जिंदगी सुख-सम्पन्न से बीत रही है किन्तु अफसोस मेरा सबसे छोटा बेटा, वेदो का ज्ञाता पंडित बन कर, घर घर यज्ञ करवा रहा है, प्रवचन कर रहा है! जितना वह साल भर मे कमाता है, अन्य बेटे महीने में कमा लेते हैं, अरे भाग्यवान! तुमने अपनी मर्जी करवा कर बड़ी गलती की। तुम्हे भी आज इस पर पश्चाताप होता होगा मुझे मालूम है, लेकिन तुम बोलती नही हो।
सावित्री ने कहा- हम मे से कौन गलत है, ये आज आपको बच्चो की कसौटी करके बताती हूँ। चलो अब हम परीक्षा ले लेते है-चारो की, कौन गलत है, कौन सही, पता चल जाएगा।
दूसरे दिन शाम के वक्त सावित्री बाल बिखरा कर अपनी साड़ी के पल्लू फाड़ कर और चेहरे पर एक दो नाखून के निशान मार कर आंगन मे बैठ गई और पतिदेव को अंदर कमरे मे छिपा दिया।
बड़ा बेटा आया - पूछा मम्मी क्या हुआ?
जवाब दिया - तुम्हारे पापा ने मारा है!
पहला बेटा – बुढढा सठिया गया है-क्या? कहा है बुलाओ।
मम्मी - नही है, बाहर गए है!
पहला बेटा - आए तो मुझे बुला लेना, कमरे मे हूँ, मेरा खाना निकाल दो, मुझे भूख लगी है! ये कहकर कमरे मे चला गया।
दूसरा बेटा आया – पूछा, तो मम्मी ने वही जवाब दिया।
दूसरा बेटा - क्या पगला गए है, इस बुढ़ापे मे। उनसे कहना चुपचाप अपनी बची खुची जिंदगी गुजार ले, आए तो मुझे बुला लेना और मैं खाना खाकर आया हूँ, सोना है मुझे, अगर आये तो मुझे अभी मत जगाना, सुबह खबर लेता हूँ उनकी, ये कहकर वो भी अपने कमरे मे चला गया।
तीसरा बेटा आया - पूछा तो आगबबूला हो गया। इस बुढ़ापे मे अपनी औलादो के हाथ से जूते खाने वाले काम कर रहे है! इसने तो मर्यादा की सारी हदें पार करके अपने कमरे मे चला गया।
दीनदयालजी अंदर बैठे बैठे सारी बाते सुन रहे थे। ऐसा लग रहा था कि जैसे उनके पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई हो, और उनके आंसू नही रुक रहे थे, किस तरह इन बच्चो के लिए दिन रात मेहनत करके पाला पोसा उनको बड़ा आदमी बनाया, जिसकी तमाम गलतियों को मैंने नजर अंदाज करके आगे बढ़ाया और ये ऐसा बर्ताव। अब तो बर्दाश्त ही नही हो रहा, आंसू पोछते हुए उठे कमरे से बाहर निकलने के लिए, इतने मे चौथा बेटा घर मे ओम् ओम् ओम् करते हुए अंदर आया।।
माँ को इस हाल मे देखा तो भागते हुए आया पूछा, तो माँ ने अब जी भर के अपने पति को बुरा भला कहा।
तब चौथे बेटे ने माँ का हाथ पकड़ कर समझाया कि माँ आप पिता श्री की प्राण हो, वो आपके बिना अधूरे हैं,---अगर पिताजी ने आपको कुछ कह दिया तो क्या हुआ? मैंने पिता जी को आज तक आपसे बद- तमीजी से बात करते हुए नही देखा, वो आपसे हमेशा प्रेम से बाते करते थे, जिन्होंने इतनी सारी खुशिया दी, आज नाराजगी से पेश आए, तो क्या हुआ, हो सकता है-आज उनको किसी बात को लेकर चिंता रही हो, हो ना हो माँ, आप से कही गलती जरूर हुई होगी, अरे माँ! पिताजी आपका कितना ख्याल रखते है, याद है न आपको, छ: साल पहले जब आपका स्वास्थ्य ठीक नही था, तो पिताजी ने कितने दिनों तक आपकी सेवाकी थी, वही भोजन बनाते थे, घर का सारा काम करते थे, कपड़े धुलते थे, तब फोन करके मुझे सूचना दी थी, कि मैं संसार की सबसे भाग्यशाली औरत हूँ, तुम्हारे पिताजी मेरा बहुत ख्याल करते हैं।
इतना सुनते ही बेटे को गले लगाकर फफक फफक कर रोने लगी, दीनदयालजी आँखो मे आंसू लिए सामने खड़े थे।
अब बताइये क्या कहेंगे आप, मेरे फैसले पर, सावित्री ने दीनदयाल जी से पूछा।
दीनदयाल जी तुरन्त अपने बेटे को गले लगा लिया।
सावित्री ने कहा ये शिक्षा इंग्लिश मीडियम स्कूलो मे नही दी जाती।
माँ-बाप से कैसे पेश आना है ये तो "गीता और रामायण" ही बताता है, माँ-बाप की सेवा करना सिर्फ "गीता और रामायण" सिखाता है
अब दीनदयाल जी को एहसास हुआ जिन बच्चो पर लाखो खर्च करके डिग्रीया दिलाई, वो सब जाली निकली , क्योकि कान्वेंट की पढाई में संस्कार का कोई स्थान नहीं हैं। असल में ज्ञानी तो वो सब बच्चे है, जिन्होंने जमीन पर बैठ कर पढ़ा है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें