श्री गंगाधराचार्य.


श्री गंगाधराचार्य.

श्री सम्प्रदाय के एक महान् गुरुभक्त संत हुए है, श्री गंगा धराचार्य जी, जिनकी गुरु भक्ति के कारण इनका नाम गुरुदेव ने श्री पादपद्माचार्य रख दिया था। श्री गंगा जी के तट पर इनके सम्प्रदाय का आश्रम बना हुआ था और अनेक पर्ण कुटियां बनी हुई थी। वही पर एक मंदिर था और संतो के आसन लगाने की व्यवस्था भी थी। स्थान पर नित्य संत सेवा, ठाकुर सेवा और गौ सेवा चलती थी। एक दिन श्री गंगाधराचार्य जी के गुरुदेव को कही यात्रा पर जाना था। कुछ शिष्यो को छोड़ कर अन्य सभी शिष्य कहने लगे – गुरुजी! हमे भी यात्रा पर जाने की इच्छा है। कुछ शिष्य कहने लगे – गुरुजी! आप हमें कभी अपने साथ यात्रा पर नही ले गए, हमे भी साथ चलना है। श्री गंगाधराचार्य जी गुरुदेव के अधीन थे। वे कुछ बोले नही, शांति से एक जगह पर खड़े थे।

अब गुरुजी ने देखा कि सभी शिष्य यात्रा पर चलना चाहते तो है परंतु आश्रम में भगवान्,गौ और संत सेवा करेगा कौन और अन्य व्यवस्था देखेगा कौन? गुरुदेव ने श्री गंगाधराचार्य जी को अपने पास बुलाया और कहा – मै कुछ समय के लिए यात्रा पर जा रहा हूं। आश्रम की संत, गौ और भगवत् सेवा का भार अब तुमपर है। श्रद्धा पूर्वक आज्ञा का पालन करो, हमे तुम पर पूर्ण विश्वास है। श्री गंगाधराचार्य जी ने प्रणाम किया और कहा – जो आज्ञा गुरुदेव। गुरुदेव जब जाने लगे तब श्री गंगाधराचार्य जी के मुख पर कुछ उदासी उन्हे दिखाई पड़ी। गुरुदेव ने कहा – बेटा! तुम्हारे मुख मंडल पर प्रसन्नता नही दिखाई पड़ती, क्या तुम हमारी आज्ञा से प्रसन्न नही हो?

श्री गंगाधराचार्य जी ने कहा – गुरुदेव भगवान् आपकी आज्ञा शिरोधार्य है परंतु जब मै आपकी शरण मे आया था तब मैंने यह प्रतिज्ञा की थी कि मै नित्य ही आपका चरणामृत ग्रहण और आपका दर्शन किये बिन कोई अन्न- जल ग्रहण नही करूँगा। गुरुदेव ने कहा – कोई बात नह , श्री गंगा जी को आज से मेरा ही स्वरूप जानकर इनका जल ग्रहण करो और दर्शन करो। गुरु भी पतित को पावन बनाते है और गंगा जी भी पतित को पावन बनाती है। श्री गंगाधराचार्य जी ने कहा – जो आज्ञा गुरुदेव और चरणों मे प्रणाम किया। अपनी अनुपस्थिति मे अपने समान गंगा जी को मानने का उपदेश देकर चले गये। गंगाधराचार्य नित्य गुरूवत् गंगा जी की उपासना करने लगे। नित्य आश्रम में गौ, संत, ठाकुर सेवा उचित प्रकार से करते थे। अतिथियों का सत्कार और प्रसाद बनाना, स्वच्छता आदि सब कार्य अकेले ही करते थे।

प्रातः काल श्री गंगा जी का दर्शन करते और गंगा जल गुरुदेव का चरणामृत समझकर ग्रहण करते थे। आरती करते और दण्डवत् प्रणाम निवेदन करते। अन्य कोई शिष्य श्रद्धा पूर्वक स्नान करते थे परंतु पादपद्म जी हृदय से ही श्री गंगा जी की वन्दना पूजा करते थे। गंगा जी को गुरुदेव का स्वरूप समझते थे और गुरुदेव के शरीर पर चरण कैसे पधरावें? इससे तो पाप लगेगा यह सोचकर कभी भी गंगाजी मे स्नान नही करते थे। इनके हृदय के भाव को न जानकर दूसरे लोग आलोचना करते थे। अन्य शिष्य गंगाधराचार्य जी की बहुत प्रकार से निंदा करते हुए कहते थे – गुरुजी बाहर क्या चले गए, इसने तो गंगा स्नान करना बंद कर दिया। जाकर कुँए पर स्नान करता है।

कुछ दिनो के पश्चात् श्री गुरुदेव जी लौटकर आये और अपना आसान आश्रम में रखा। अभी गुरुजी को आये कुछ ही देर हुई थी कि गंगाधराचार्य जी की निंदा करने के लिए कुछ शिष्य पहुंच गए। कुछ शिष्य जो आश्रम में ही रुके थे, उन्होंने गुरुजी से कहा – गुरुजी! गंगाधराचार्य जी ने आपके यात्रा पर जाने के बाद गंगा स्नान करना त्याग दिया, पड़ा प्रमादी है, यह तो। श्री गुरुदेव कुछ नही बोले और श्री गंगाधराचार्य जी भी मौन खड़े रहे। गुरुदेव अच्छी तरह से गंगाधराचार्य जी की गुरुनिष्ठा के विषय मे जानते थे परंतु उन्हें उनकी गुरुभक्ति संसार मे प्रकट करना था। अगले दिन प्रातः काल इनकी गुरूवाक्य और गुरु निष्ठा का परिचय प्रकट करने का निश्चय गुरुदेव ने किया।

गुरुदेव ने अपने अन्य शिष्यों सहित गंगाधराचार्य जी को स्नानार्थ श्री गंगा जी की ओर चलने को कहा। गुरुदेव गंगाधराचार्य जी से बोले – बेटा! हम स्नान करने जा रहे है, तुम मेरे कमंडल अचला और लंगोटी लेकर पीछे पीछे चलो। गुरुदेव गंगा जी में स्नान करने उतरे और थोड़ी देर बाद श्री गंगाधराचार्य जी से कहा – हमारा अचला लंगोटी और कमंडल यहां हमारे पास लेकर आओ। अब गंगा धराचार्य जी धर्म संकट में पड़ गए। वे सोचने लगे – श्री गंगा जी हमारे गुरुदेव का स्वरूप है, गंगा जी मे चरण रखना गुरु का अपमान होगा और यहां प्रत्यक्ष गुरुदेव आज्ञा दे रहे है। अब तो श्री गंगा जी और गुरुदेव ही हमारे धर्म की रक्षा करेगी। इस गुरुनिष्ठ शिष्य की मर्यादा और गुरु भक्ति की रक्षा करने हेतु श्री गंगा जी ने वहां अनेक विशाल कमलपुष्प उत्पन्न कर दिए।

गुरुदेव ने उन कमलपुष्पो पर पैर रखते हुए चलकर शीघ्र अचला, लंगोटी और कमंडल लेकर आने को कहा। उन्ही पर पैर रखते हुए ये गुरुदेव के समीप दौडकर गये। श्री गंगाधराचार्य जी का जो प्रभाव गुप्त था, वह उस दिन प्रकट हो गया, इस दिव्य चमत्कार को देखकर सभो के मन मे गंगा जी और पादपद्म जी मे अपार श्रद्धा हो गयी। गुरुजी ने कहा – बेटा धन्य है, तुम्हारी गुरुभक्ति जिसके प्रताप से गंगा जी ने यह कमलपुष्प उत्पन्न कर दिए। संसार मे आज के पश्चात तुम्हारा नाम पादपद्माचार्य के नाम से प्रसिद्ध होगा। उसी दिन से गंगाधराचार्य जी का का नाम पादपद्माचार्य पड गया।

(साभार-श्री भक्तमाल-कथा)

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