कुलदेवता-कुलदेवी और पितृ तर्पण.


कुलदेवता-कुलदेवी और पितृ तर्पण.

मान्यता के अनुसार मानव किसी न किसी ऋषि के वंशज हैं, जिनसे उनके गोत्र का पता चलता है ,बाद में कर्मानुसार इनका विभाजन वर्णों में हो गया विभिन्न कर्म करने के लिए, जो बाद में उनकी विशिष्टता बन गई और जाति कही जाने लगी।

ऋषि से उत्पन्न संतान होने के कारण ऋषि और ऋषि पत्नी कुलदेव / कुलदेवी के रूप में पूज्य हैं। जीवन में कुलदेवता का स्थान सर्वश्रेष्ठ है| आर्थिक शुभता, कौटुंबिक सुख-शांती एवं आरोग्य की कमना में कुलदेवी की कृपा का निकटतम संबंध मानते हुये पूर्वजों ने कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया था ,ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति कुलों की रक्षा करती रहे, जिससे उनकी नकारात्मक शक्तियों/ऊर्जाओं और वायव्य बाधाओं से रक्षा होती रहे और वे निर्विघ्न अपने कर्म पथ पर अग्रसर रह उन्नति करते रहें।

कुलदेवी/देवता दरअसल कुल या वंश की रक्षक देवी देवता होते है। ये घर परिवार या वंश परम्परा की प्रथम पूज्य तथा मूल अधिकारी देव होते है। सर्वाधिक आत्मीयता के अधिकारी इन देवो की स्थिति घर के बुजुर्ग सदस्यों जैसी महत्वपूर्ण होती है। अत: कुल इष्ट की पूजा के उपासना के आभाव में अन्य देवी-देवताओं की आराधना में विघ्न आ जाता हैं और सफलता नहीं।

खासकर सांसारिक लोगो को कुलदेवी देवता की उपासना इष्ट देवी देवता की तरह रोजाना करना चाहिये,

अन्तराल में परिवारों के एक दुसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने, आक्रान्ताओं के भय से विस्थापित होने, जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने, संस्कारों के क्षय होने, अंतर-जातीय-प्रगाढता के कारण बहुत से परिवार अपने कुल देवता /देवी को भूल गए अथवा उन्हें मालूम ही नहीं रहा कि उनके कुल देवता /देवी कौन हैं या किस प्रकार उनकी पूजा की जाती है?

कुल देवता /देवी की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई ख़ास अंतर नहीं समझ में आता ,किन्तु उसके बाद जब सुरक्षा चक्र हटता है, तब परिवार में दुर्घटनाओं, नकारात्मक ऊर्जा, वायव्य बाधाओं का बेरोक-टोक प्रवेश शुरू हो जाता है, उन्नति रुकने लगती है, पीढ़िया अपेक्षित उन्नति नहीं कर पाती, संस्कारों का क्षय, नैतिक पतन, कलह, उपद्रव, अशांति शुरू हो जाती हैं, व्यक्ति कारण खोजने का प्रयास करता है, कारण जल्दी नहीं पता चलता क्योकि व्यक्ति की ग्रह स्थितियों से इनका कोई मतलब नहीं होता, अतः ज्योतिष आदि से इन्हें पकड़ना मुश्किल होता है, भाग्य कुछ कहता है और व्यक्ति के साथ कुछ और घटता है|

कुलदेवी, देवता और इष्ट देवी देवता एक ही हो सकते है, इनकी उपासना भी सहज और तामझाम से परे होती है. जैसे नियमित दीप व् अगरबत्ती जलाकर देवो का नाम पुकारना या याद करना, विशिष्ट दिनों में विशेष पूजा करना, घर में कोई पकवान आदि बनाए तो पहले उन्हें अर्पित करना फिर घर के लोग खाए, हर मांगलिक कार्य या शुभ कार्य में उन्हें निमन्त्रण देना या आज्ञा मांगकर कार्य करना आदि। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि धर्म बदल लिया हो या इष्ट बदल लिया हो तब भी तब भी कुलदेवी देवता नही बदलेंगे, क्योकि इनका सम्बन्ध वंश परिवार सेहोता है. किन्तु धर्म या पंथ बदलने के साथ साथ यदि कुल देवी देवता का भी त्याग कर दिया जय तो जीवन में अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है।

किसी महिला का विवाह होने के बाद ससुराल की कुलदेवी /देवता ही उसके उपास्य होते हैं, इसी प्रकार कोई बालक किसी अन्य परिवार में गोद में चला जाए तो गोद गये परिवार के कुल देव उपास्य हों।

कुलदेवता /कुलदेवी की पूजा में घर की कुँवारी कन्याओं को शामिल नहीं किया जाता और पूजन में अर्पित प्रसाद घर के सदस्य ही ग्रहण करते हैं।

पारिवारिक मान्यताओं के अनुसार पूजन विधि और प्रसाद वितरण या ग्रहण करने में आंशिक परिवर्तन हो सकता हैं।

अतएव नितांत अनिवार्य हैं कि हिन्दू परम्परावादी प्रत्येक परिवार को सर्व प्रथम अपने कुल देवी, कुल देवता का पूजन और पितृ तर्पण अवश्य करना चाहिए। ऐसे संकट ग्रस्त परिवार जो ययह नहीं करते थे और अन्य उपाय जो भी उन्हें अन्य किसी ने बताया था, सब कर लिए जाने के पश्चात भी आराम नहीं लगा, तब मैंने उन्हें सलाह दी कि वे अपने कुल देवी-देव से क्षमा मांगे, और पूजन का संकल्प लेवें। जैसे ही उन्होंने ऐसा किया उन्हें शीघ्र ही लाभ होने लगा। यही बात पितृ तर्पण में भी पाई गई हैं।

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