खुशाल बाबा.
दक्षिण मे भारत का दूसरा वृंदावन श्री क्षेत्र पंढरपुर बहुत प्रसिद्ध है। वहाँ आषाढ और कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को बडा मेला लगता है। वैष्णव भक्त दोनो पूर्णिमाओं को यहाँ की यात्रा करते है। उन्हें वारकरी कहते है और यात्रा करने को कहते है वारी। ऐसो ही एक पूर्णिमा को श्री खुशलबाबा ‘वारी’ करने पंढरपुर आये। श्रद्धा भक्ति से भगवान् विट्ठलके दर्शन किये और मेला देखने गये । उन्होने देखा कि एक दूकान में श्री विट्ठलजी का बडा ही सुंदर पाषाण विग्रह है। बाबा के चित्त मे श्री विट्ठलनाथ के उस पाषाण विग्रह के प्रति अत्यंत आकर्षण हो गया। उन्होने सोचा पूजा अर्चा के लिये भगवान् का ऐसा ही विग्रह चाहिये। उन्होनें उसे खरीदने का निश्चय किया और दूकानदार उस विग्रह का मूल्य पूछा।
दूकानदार ने विग्रह के जितने पैसे बताये, उतने पैसे बाबा के पास नहीं थे। दूकानदार मूल्य कम करने पर राजी नहीं था। बाबा को बडा दुख हुआ। उन्होने सोचा अवश्य ही मैं पापी हूं। इसीलिये तो भगवान् मेरे घर आना नहीं चाहते। वे रो रोकर प्रार्थना करने लगे – हे नाथ! आप तो पतितपावन हैं। पापियो को आप पवित्र करते हैं। बहुत से पापियो का आपने उद्धार किया हे, फिर मुझ पापी पर हे नाथ! आप क्यो रूठ गये? दया करो मेरे स्वाम ! मैं पतित आप पतितपावन की शरण हूँ।
बाबा ने देखा एक गृहस्थ ने मुंह मांगा दाम देकर उस पाषाण विग्रह को खरीद लिया है। अब उस विग्रह के मिलने की कुछ आशा ही नहीं है। बाबा बहुत ही दुखा हो गये। उस विग्रह के अतिरिक्त उन्हे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था, उनका दिल तो उसी विग्रह की सुंदरता ने चुरा लिया था। उनके अन्तश्चक्षु के सामने बार बार वह विग्रह आने लगा। खाने पीने की सुधि भी वे भूल गये। रात को एकादशी का कीर्तन सुनने के बाद वह गृहस्थ उस पाषाण विग्रह को एक गठरी में बांधकर और उस गठरी को अपने सिरहाने रखकर सो गया। खुशाल बाबा भी श्री विट्ठल भगवन का नाम स्मरण करते हुए एक जगह लेट गये।
भगवान् विट्ठल ने देखा कि खुशाल बाबा का चित्त उनमें अत्यधिक आसक्त है और वे हमारी सेवा करना चाहते है। विग्रह के बिना बाबा दुखी हो रहे थे। भक्त के दुख से दुखी होना यह भगवान् का स्वभाव है। गीता में उन्होने अपने श्रीमुख से कहा है- ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । इस के अनुसार खुशाल बाबा के पास जाने का प्रभु ने निश्चय किया। मध्यरात्रि हो गयी। गृहस्थ सो रहा था। भगवान बड़े विचित्र लीलाविहारी हैं, उन्होंने लीला करने की ठानी। वे उस गठरी से अन्तर्धान हो गये और खुशाल बाबा के पास आकर उनके सिरहाने टिक गये। भगवान् कहने लगे – ओ खुशाल! मै तेरी भक्ति से प्रसन्न हूं। देख मैं तेरे पास आ गया। बाबा ने आँखे खोली। भगवान् को अपने सिरहाने देखकर उन्हें बहुत हर्ष हुआ। वे प्रेम में उन्मुक्त होकर नाचने और संकीर्तन करने लगे।
सुबह वह धनिक भी जागा, उसने अपनी गठरी खोली। देखा तो अन्दर श्रोविट्ठल का विग्रह नही है। वह चौंक गया। वह उसकी खोज मे निकला। घूमते घूमते वह बाबा के पास अस्या। उसने देखा श्रीविग्रह हाथ में लेकर खुशाल बाबा नाच रहे है। उसने बाबा पर चोरी का आरोप लगाया और उनके साथ झगडने लगा। बाबा ने उसे शान्ति के साथ सारी परिस्थिति समझा दी और विग्रह उसे लौटा दिया।
दूसरे दिन रात को भगवान् ने ठीक वही लीला की और बाबा के पास पहुँच गये। वह धनिक सुबह उठा तो फिर विग्रह गायब! वह सीधा बाबा के पास गया तो वही कल वाला दृश्य दिखाई पड़ा। बाबा विट्ठल विग्रह को लेकर नाच रहे है, धनिक ने बहुत झगड़ा किया। बाबा ने उसे फिर से सत्य बात बता दी और विग्रह उसे लौटा दिया। अब उस गृहस्थ ने कडे बन्दोबस्त मे उस विग्रह को रख दिया और सो गया। भगवान् ने स्वप्न मे उसे आदेश दिया कि खुशालबाबा मेरा श्रेष्ठ भक्त है। वह मुझे चाहता है और मैं भी उसे चाहता हूँ। अब आदर के साथ जाकर मेरा यह विग्रह उसे समर्पण कर दो। इसी मे तुम्हारी भलाई है। हठ करोगे तो तुम्हारा सर्वनाश हो जायगा। इतना कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।
बाबा खुशालजी भगवान् के विरह मे रो रहे थे। प्रात: काल वह धनिक स्वयं उस श्री विग्रह को लेकर उनके पास पहुंचा और बाबा के चरणो में वह गिर पडा। अनुनय विनय के साथ उसने वह विग्रह बाबा को दे दिया। बाबा बड़े आनन्द से फैजपुर लौट आये। उन्होंने बड़े समारोह के साथ उस श्री विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की। प्रात:काल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर बाबा स्नान करते और तीन घण्टे भजन पूजन करते। तदनन्तर जीविका का धंधा करते। सांयकाल भोज़न के बाद भजन कीर्तन करते। काम करते समय भी उनके मुख से भगवान् का नाम स्मरण अखण्ड चलता रहता था। भगवान् बाबा से बहुत बाते करते, समय समय पर अनेको लीला करते रहते थे।
भगवान् की कृपा से यथासमय बाबा के एक कन्या हुई थी, वह विवाह योग्य हो गयी। बाबा की आर्थिक स्थिति खराब थी। पास में धन नहीं था। विवाह कराना भी आवश्यक था। सबने कहा बाबा कर्ज ले लो, तब अन्त मे लखमीचंद नामक एक बनिये से उन्होने दो सौ रुपये उधार लेकर कन्या का विवाह कर दिया। ऋण चुकाने की अन्तिम तिथि निकट आ गयी। बाबा के पास कौडी भी नहीं थी। वे बस दिन रात भगवान् के नाम में मस्त रहते थे। एक दिन बनिये का सिपाही बाबा के दरवाजे पर आकर तकाजा करने लगा। बाबाने उस से कहां – मै कल शाम तक पैसे की व्यवस्था करता हूँ। आप निश्चिन्त रहिये। बाबा कभी किसी से कुछ मांगते न थे परंतु अब दूसरा उपाय बचा न था। गाँव में किसी ने भी ऋण देना स्वीकार नहीं किया। पडोस के एक दो गाँवों में जाकर बाबा ने पैसे लाने की कोशिश की परतुं ऋण चुकाने लायक पैसे जमा नहीं हुए । दूसरे दिन तक पैसे नहीं लौटाथे जाते हैं तो बनिया लखमीचंद उनके घर को नीलाम कर देगा। बाबा ने सब हरि इच्छा मानकर घर वापस आ गये और भजन में लग गए। इधर भक्तवत्सल भगवान् को भक्त की इज्जत की चिन्ता हुई। आखिर ऋण को चुकाना ही था। क्या किया जाय? भगवान् ने दूसरी लीला करने का निश्चय किया। भगवान ने मुनीम का वेष धारण किया। वे उसी वेष में लखमीचंद के घर गये।
उन्होने सेठजी को पुकार कर कहा – ओ सेठजी! ये दो सौ रुपये गिन लीजिये। मेरे मालिक खुशाल बाबा ने भेजा है। भली भाँति गिनकर रसीद दे दीजिये। लखमी चंद ने रकम गिन ली ओर रसीद लिख दी। भगवान् रसीद लेकर अन्तर्धान हो गये और बाबा की पोथी में वह रसीद उन्होने रख दी। दूसरे दिन बाबा ने स्नान करके नित्य पाठ की गीता पोथी खोली। देखा तो उसमें रसीद रखी है। रसीद देखकर बाबा आश्चर्यचकीत हो गये और भगवान् को बार बार धन्यवाद देकर रोने लगे। फिर रोते रोते बाबा कहने लगे कि मेरे कारण भगवान् को कष्ट हुआ है। वह बनिया बड़ा पुण्यवान् है इसलिये तो भगवान ने उसे दर्शन दिये और मैं अभागा पापी हूँ, द्रव्य का इच्छुक हूँ इसीलिये भगवान् ने मुझे दर्शन नहीं दिये।
उनके महान् पश्चाताप और अत्यन्त उत्कट इच्छा के कारण भक्तवत्सल भगवान् ने द्वादशी के दिन खुशालबाबा के सम्मुख प्रकट होकर दर्शन दिये। उसी गाँव में लालचन्द नामक एक बनिया रहता था। उसने नित्य पूजा के लिये भगवान् श्रीराम, लक्ष्मण और भगवती सीता के सुन्दर सुन्दर विग्रह बनवाये। भगवान् श्री राम जी ने देखा की यहां के भक्त खुशलबाबा पांडुरंग के विग्रह की सेवा बड़े प्रेम से करते है, मधुर कीर्तन सुनाते है, हर प्रकार भगवान् की उचित सेवा करते है। श्रीराम की इच्छा हुई कि पांडुरंग विग्रह जैसी प्रेमपूर्ण सेवा बाबा के हाथो से हमारे विग्रह की भी हो।
उस रात मे जब वह बनिया सो गया तो भगवान् श्रीरामचन्द्र स्वप्न मे आये और उन्होने उसको आज्ञा दी- लालचन्द! हम तुमपर प्रसन्न है किंतु हमारी इच्छा तेरे घर मे रहने की नही है। हमारा भक्त खुशाल इसी नगर में रहता है। उसको तू अब सब विग्रह अर्पित कर। जब भी तुझे दर्शन की इच्छा हो, तब वहाँ जाकर दर्शन कर लेना। इसी मे तेरा क्लयाण है। मनमानी करेगा तो मै तुझ पर रूठ जाऊँगा। सुबह नित्यकर्म करने के बाद लालचन्द बनिया ने सब विग्रह लेकर बाबा के चरणो मे उपस्थित हुआ। बाबा से स्वप्न के विषय में निवेदन करके उसने वे सब विग्रह उनको समर्पित कर दिये।
खुशाल बाबा भक्ति प्रेम से उन विग्रहो की पूजा काने लगे। उन्होने नगरवासियो के सम्मुख भगवान् का मंदिर बनवाने का प्रस्ताव रखा। नगरवासियो ने हर्ष के साथ उसे स्वीकार किया और सबके प्रयत्न से भगवान् श्रीराम का भव्य मंदिर बन गया। वैदिक पद्धति से बड़े समारोह के साथ उन विग्रहो की प्रतिष्ठा मंदिरो में की गयी । आज़ भी संत श्री खुशाल बाबा का भक्ति परिचय देता हुआ वह मंदिर खडा है।
वृद्धावस्था में जब बाबा ने देखा कि अब मृत्यु आ रही है, तब वे अनन्य चित्त से भजनानन्द में निमग्न रहने लगे। कही भी आना जाना बंद दिया, अधिक किसी से मिलते नहीं। केवल हरिनाम में मग्न रहते। उन्होने अपना मृत्युकाल निश्चित रूप से अपने मित्र मनसाराम को पहले ही बता दिया था। ठीक उसी दिन कार्तिक शुक्ला चतुर्थी शक १७७२ को -रामकृष्ण हरि, रामकृष्ण हरि, रामकृष्ण हरि – नाम स्मरण करते हुए बाबा भगवान् की सेवा मे सिधार गये।
उनके पुत्र का नाम श्रीहरीबाबा था। वे भी बाबा के समान ही बडे भगबद्भक्त थे। उनके पुत्र रामकृष्ण और रामकृष्ण के पुत्र जानकीराम बाबा भी भगबद्भक्त थे। खुशाल बाबा ने काव्य रचनाएं भी की हैं| करुणास्तोत्र, दत्तस्तोत्र, दशावतार चरित आदि उनके ग्रन्थ हैं। गुजराती भाषा में लिखे हुए उनके ‘गरबे’ प्रसिद्ध है।
(साभार- श्री भक्तमाल-कथा)
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