वासनाओं और आकर्षणों
से थका हुआ मनुष्य.
महर्षि सनतकुमार ने उपदेश दिया, वाणी, मन, संकल्प, चित्त, ध्यान, विज्ञान, प्राण आदि पंद्रह तत्वों को जानना चाहिए। सत्य, मति (बुद्धि), कर्मण्यता (पुरुषार्थ), निष्ठा तथा कृति (कर्तव्यपरायणता) आदि का ज्ञान प्राप्त करने से आत्मिक सुख मिलता है।
सच्चा सुख तो परमात्मा की सर्वव्यापकता की अनुभूति होने पर ही मिलता है। इस अनुभूति के होने पर मनुष्य यह स्वीकार कर लेता है कि सारा संसार उसका परिवार है-वसुधैव कुटुंबकम। जब हमारा दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है, तो हम प्राणी मात्र में अपने परमात्मा के दर्शन करते हैं।
धर्मशास्त्रों में कहा गया है, परमात्मा सर्वत्र है। वह नित्य, पवित्र और प्रेम का प्रतीक है। जिसे परमात्मा के प्रति असीम निश्छल प्रेम की अनुभूति होने लगती है, उसका हृदय सांसारिक आसक्ति से रहित हो जाता है। जीव जब संसार की वासनाओं और क्षणिक आकर्षणों में भटककर थक जाता है, तब उसे परमात्मा की शरण में जाकर ही परम शांति व सुख प्राप्त होता है।
कुरुक्षेत्र में खग्रास सूर्यग्रहण लगा था। ब्रज से वसुदेव जी भी वहां पहुंचे। ऋषि गणों के शिविरों में उन्होंने शास्त्र प्रवक्ता व्यास जी से अनेक प्रश्न किए। वसुदेव जी ने जिज्ञासावश पूछा, सद्गृहस्थ के लिए कल्याण के सरल साधन कौन से हैं?
महर्षि व्यास ने कहा, न्यायपूर्वक अर्जित धन से पूजन-अर्चन तथा यज्ञ करें, इच्छाएं सीमित रखें, परिवार का पालन-पोषण करें और धर्म और सत्य के मार्ग पर अटल रहें- इन नियमों के पालन से स्वतः कल्याण हो जाता है।
वसुदेव जी ने फिर पूछा, ऋषिवर, इच्छाएं त्यागने के उपाय क्या हैं? व्यास जी ने कहा, धनार्जन करें, परंतु धर्मपूर्वक और न्यायपूर्वक (ईमानदारी) ही। भले ही भूखे रहना पड़े, पर अधर्मपूर्वक (बेईमानी) धन कदापि अर्जित न करें। वही धन सार्थक होता है, जो यज्ञ, दानादि व परोपकार में व्यय किया जाता है।
व्यास जी ने आगे कहा, जब मनुष्य को पौत्र हो जाए, तो उसे गृहस्थी का मोह त्यागकर तपस्या, भजन-पूजन व समाज के ऋण से मुक्त होने में लग जाना चाहिए।
अंत में वसुदेव जी ने पूछा, ऋषिवर, मुझे क्या करना चाहिए? व्यास जी ने बताया, मधुसूदन ने साक्षात आपके पुत्र के रूप में जन्म लिया है-यह आपके पूर्वजन्मों के पुण्यों का प्रताप है। आप समस्त कर्तव्यों से मुक्त हो चुके हैं। देवऋण से विमुक्त होने के लिए आप प्रतिदिन अग्निहोत्र और पंचयज्ञ करते रहें।
व्यास जी से आशीर्वाद पाकर वसुदेव धन्य हो उठे।
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