धर्म और कर्म.
धर्म शब्द, संस्कृत के “धृ” शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है, धारण करना। परमात्मा की सृष्टि को धारण करने के लिए जो कर्म और कर्तव्य किया जाता ह , उसे ही धर्म के अंग का लक्षण माना गया है। धर्म पुरुषार्थ है और पुरुषार्थ पालन में सुख मिलता है। पुरुषार्थ की प्रेरणा और प्रेम, जीवन के साथ मृत्यु का भी महत्व बताता है। धर्म - इन्सान के लिए है, भगवान के लिए नहीं। धर्म अकेला नहीं रहता; धर्म को धारण करने से शीतलता आती है। संयम-त्याग, विवेक और प्रेम आता है। धर्म इसी जीवन में, एक नये जीवन की ओर ले जाता है; धर्म का आश्रय संसार रूपी इस सागर को पार करा देता है। उदाहरण स्वरूप, श्लोक में धर्म के दश लक्षण बताये गये हैं। (१) दुख में धीरज रखना, अपराधी को क्षमा करना,बुद्धि को बुरे काम में नहीं बल्कि अच्छे कार्यों में लगाना। मन और तन, दोनों की सफ़ाई रखना, सम्यक ग्यान का अर्जन, सच का पालन; ये सभी उत्तम कार्यों में आते हैं। बाकी चोरी नहीं करना, अपनी इन्द्रियों को लोलुपता से बचाये रखना, क्रोध से दूर रहना तथा मन को बुरे कर्मों से दूर रखना; ये सभी उत्तम कर्म हैं। अहिंसा परमो धर्म: -- अर्थात अहिंसा सभी धर्मों में श्रेष्ठ है। इसलिए मनुष्य को कहीं भी, किसी प्राणी की हिंसा नहीं करना चाहिये। अपने प्राण से बढ़कर प्यारी कोई दूसरी वस्तु नहीं होती; इसलिए मनुष्य अपने प्राण के लिए जिस प्रकार, प्यार और दया रखता है, दूसरे जीवों पर भी दया और प्यार रखना चाहिये।
धर्म, एकता का वह बल है, जो समाज या देश में, सहज कलह और स्वार्थ उत्पन्न नहीं होने देता। समाज में जहाँ धर्म रहता, वहाँ संघर्ष और बिखराव नहीं होता। जहाँ एकता नहीं रहती, वहाँ दुख और तृष्णा रहती है; जो धर्म और अधर्म का भेद बताता रहता है, उचित क्या है और अनुचित क्या, यह तो समय-काल ,और परिस्थिति पर निर्भर करता है। हमें जीने के लिए आर्थिक क्रिया करना है। यहाँ हर चीज नश्वर है। हमारा शरीर भी नश्वर है; यहाँ कुछ भी स्थाई नहीं है। यहाँ तक कि धन और वैभव भी, जिसे हम तिनका-तिनका कर जमा करते हैं, सब यहीं रह जाता है। साथ कुछ नहीं जाता। आदमी खाली हाथ आया है, खाली चला जाता है। रह जाता है,केवल उसका धर्म और कर्म, जो कभी नहीं मिटता। अत: धर्म-संग्रह सबसे बड़ा धन है। हमें जितना अधिक हो, इसका अर्जन करना चाहिये।
हम कितना भी अपना हाथ-पैर मार लें, इस ब्रह्माण्ड के रचयिता को जानना, कभी संभव नहीं हुआ है। जब से पृथ्वी बनी, पृथ्वी के आरम्भ काल से ही लोग, आदमी कहाँ से आता है, और मरकर कहाँ जाता है, के रहस्य का पता लगाने में जुट गये, लेकिन नहीं लगा सके; आज भी यह प्रश्न जस का तस है।
(रामायण) में भुशुंडि ने भी, पक्षीराज गरुड़ से यही कहा है ----
तुम समान खग मसक प्रजंता |
नभ उड़ाहि नहीं पावहिं अंता ||
अर्थात कोई पक्षी आकाश की कितनी ही ऊँचाई की सैर क्यों न कर ले, आकाश के छोर को नहीं छू सकता । छूने की बात तो दूर,
प्रतिपल परिवर्तनशील इस जगत को कोई सूंघ भी नहीं सका। कारण यह जगत घ्राणेन्द्रियों से परे है , हमारे वश में कुछ भी नहीं है, न जनम, न साँस लेना। हम खुद को भ्रमवश, शक्तिशाली समझते हैं। हमारी सोच ससीम है और ऊपर अनंत असीम।
मनुष्य की तरह, हर जीव अनंत काल तक जीना चाहता है, लेकिन ऊपर वाले की मर्जी के सामने सब बेवश हैं; हमारा समाज और हमारी दुनिया कैसे शाँति सम्पन्न व सुख पूर्वक जी सके, इसी आकांक्षा के विचार से धर्म की उत्पत्ति हुई है। धर्म पुरुषार्थ है, इसके पालन में बड़ा सुख मिलता है। जब तक जीव जगत है, तब तक धर्म है, धर्म व्यक्ति के श्रेष्ठ-श्रेष्ठतर में बदलाव का कारक-उत्प्रेरक है। धर्म जीते जी, नये जीव की ओर ले जाता है। कोई भी व्यक्ति उच्च कुल में सिर्फ़ जनम पाने से धार्मिक नहीं हो जाता। धर्म का सम्बन्ध उसके क्रियात्मक कर्मों से है। धर्म-रथ पर किसी को भी जबरन चढ़ाया नहीं जा सकता, जब तक उसका खुद मन-हृदय न चाहे। इस संसार – सागर से पार कराने का एकमात्र आश्रय धर्म है; धर्म का रथ ही, जिसमें दया, क्षमा, श्रद्धा, समता की डोरी से बंधा बल-विवेक, दम और परोपकार रूपी चार घोड़े खीच रहे हैं ,ये ही भवसागर से पार लगायेंगे। ईश्वर भजन इस रथ का सारथी है; इस रथ पर के सवारी का जीवन- मृत्यु , कुछ बिगाड़ नहीं सकता। इसलिए हमें धर्म और कर्म , दोनों ही खूब सोच-विचार कर करना चाहिये। नकारात्मक कर्म, भविष्य को बिगाड़ कर रख देता है। अत: हमारा मह्त्वपूर्ण कर्म है, अपने में व्याप्त कमियों को समझना। हिन्दुत्व कहता है--
अनित्यानि शरिराणि विभवो नैव शाश्वत: ।
धर्म के परिपेक्ष में सभी धर्म गुरुओं का एक सा मत है; वह है, धर्म-मार्ग पर चलने वाले आदमी के आचार-विचार में शुद्धि।
कलुषित हृदय आदमी को धर्म के मार्ग पर चलने नहीं देता। धर्म पर चलना,तलवार की धार पर चलने समान है, जो सबों के लिए सम्भव नहीं। इस पर विवेकी ही चल सकते हैं । संत तुलसीदास जी ने कर्म के बारे में कहा है---- हमारे शरीर के अस्तित्व में आने से पहले ही हमारी नियति आकार ग्रहण कर लेती है। कर्म भाग्य नहीं है, यह तो हम ’जैसा करेंगे, वैसा भरेंगे’।
कर्म की विजय हमारे बौद्धिक कार्य और संयमित प्रक्रिया में निहित है । सभी कर्म तुरंत पलटकर नहीं आते, कुछ जमा होते हैं और इस जनम या अन्य जनम में अप्रत्याशित रूप से लौटकर आते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा----
कर्माण्येवाधिकारस्ते मा फ़लेषु कदाचन ।
मा कर्मफ़ल्हेतुर्भूर्मा ते सड़गोsस्त्वकर्मणि ॥
अर्थात मनुष्य को फ़लाकांक्षा को छोड़ कर्म करना चाहिये; क्योकि उसका अधिकार, कर्म के फ़ल पर नहीं, केवल कर्म पर है। हम जो भी काम करते हैं, उसे सुर्य, चन्द्र, वायु, अग्नि, पृथ्वी, जल, यम, सुर्योदय और सुर्यास्त सभी देख रहे होते हैं। ये सभी हमारे अच्छे-बुरे कर्मों के साक्ष्य हैं।
हमें कोई भी कार्य करने के पहले, उसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिये, क्योंकि सचेत होकर किये गये कार्य,सुंदर और गंभीर होते हैं । 84 लाख योनियों में मनुष्य का जन्म सिर्फ़ एक बार मिलता है। मनुष्य योनि में ही किसी कर्म को करने के पहले सोच-विचार की सामर्थ्य हैं, ’जिस कार्य को करने जा रहे हैं, या कर रहे हैं; यह सही है या गलत”। हम अपने वर्तमान जीवन में कर्म के प्रभाव को सुलझाने और भाग्य को उच्च बनाने के लिए, उसे बदल भी सकते हैं। ग्यान और स्पष्टता की कमी नकारात्मक कर्म को जन्म देती है। हम अनजाने में उस कर्म को कर बैठते हैं ,जो हमारे खुद के लिए ही नहीं बल्कि समाज के लिए भी अहितकर होता है।उच्च विकसित अस्तित्व, सुकर्म का फ़ल पोषक होता हैं और मोक्ष भी कारण बनता है।
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