श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद.

 

(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः
श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद.


श्रीब्रह्माजी ने कहा- बेटा! मैं तुमसे सत्य सिद्धान्त की बात कहता हूँ, ध्यान देकर सुनो। तुम्हें अप्रमेय श्रीहरि के प्रति किसी प्रकार की दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। तुम्हीं क्या-हममहादेव जी, तुम्हारे पिता स्वयाम्भुव मनुऔर तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हीं आज्ञा का पालन करते हैं। उनके विधान को कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, योगबल या बुद्धिबल से, न अर्थ या धर्म की शक्ति से और न स्वयं या किसी दूसरे की सहायता से ही टाल सकता है। प्रियवर! उसी अव्यक्त ईश्वर के दिये हुए शरीर को सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दुःख का भोग करने तथा कर्म करने के लिये सदा धारण करते हैं।

वत्स! जिस प्रकार रस्सी से नथा हुआ पशु मनुष्यों का बोझ ढोता है, उसी प्रकार परमात्मा की वेदवाणीरूप बड़ी रस्सी में सत्त्वादि गुण, सात्त्विक आदि कर्म और उनके ब्राह्मणादि वाक्यों की मजबूत डोरी से जकड़े हुए हम सब लोग उन्हीं के इच्छानुसार कर्म में लगे रहते हैं और उसके द्वारा उनकी पूजा करते रहते हैं। हमारे गुण और कर्मों के अनुसार प्रभु ने हमें जिस योनि में डाल दिया है, उसी को स्वीकार करके, वे जैसी व्यवस्था करते हैं, उसी के अनुसार हम सुख या दुःख भोगते रहते हैं। हमें उनकी इच्छा का उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधे को आँख वाले पुरुष का।

मुक्त पुरुष भी प्रारब्ध का भोग करता हुआ भगवान् की इच्छा के अनुसार अपने शरीर को धारण करता ही है; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य की निद्रा टूट जाने पर भी स्वप्न में अनुभव किये हुए पदार्थों का स्मरण होता है। इस अवस्था में भी उसको अभिमान नहीं होता और विषयवासना के जिन संस्कारों के कारण दूसरा जन्म होता है, उन्हें वह स्वीकार नहीं करता। जो पुरुष इन्द्रियों के वशीभूत है, वह वन-वन में विचरण करता रहे तो भी उसे जन्म-मरण का भय बना ही रहता है; क्योंकि बिना जीते हुए मन और इन्द्रियरूपी उसके छः शत्रु कभी उसका पीछा नहीं छोड़ते।

जो बुद्धिमान् पुरुष इन्द्रियों को जीतकर अपनी आत्मा में ही रमण करता है, उसका गृहस्थाश्रम भी क्या बिगाड़ सकता है? जिसे इन छः शत्रुओं को जीतने की इच्छा हो, वह पहले घर में रहकर ही उनका अत्यन्त निरोध करते हुए उन्हें वश में करने का प्रयत्न करे। किले में सुरक्षित रहकर लड़ने वाला राजा अपने प्रबल शत्रुओं को भी जीत लेता है। फिर जब इन शत्रुओं का बल अत्यन्त क्षीण हो जाये, तब विद्वान् पुरुष इच्छानुसार विचर सकता है। तुम यद्यपि श्रीकमलनाभ भगवान् के चरणकमल की कलीरूप किले के आश्रित रहकर इन छहों शत्रुओं को जीत चुके हो, तो भी पहले उन पुराणपुरुष के दिये हुए भोगों को भोगो; इसके बाद निःसंग होकर अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना।

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