(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः
श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव जी कहते
हैं- जब त्रिलोकी के गुरु श्रीब्रह्मा जी ने इस प्रकार कहा, तो परमभागवत प्रियव्रत ने छोटे होने के
कारण नम्रता से सिर झुका लिया और ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर बड़े आदरपूर्वक उनका आदेश शिरोधार्य किया। तब स्वयाम्भुव मनु
ने प्रसन्न होकर भगवान् ब्रह्मा जी की विधिवत् पूजा की। इसके पश्चात् वे मन और
वाणी के अविषय, अपने आश्रय तथा सर्वव्यवहारातीत परब्रह्म
का चिन्तन करते हुए अपने लोक को चले गये। इस समय प्रियव्रत और नारद जी सरल भाव से
उनकी ओर देख रहे थे। मनु जी ने इस प्रकार ब्रह्मा जी की कृपा से अपना मनोरथ पूर्ण
हो जाने पर देवर्षि नारद की आज्ञा से प्रियव्रत को सम्पूर्ण भूमण्डल की रक्षा का
भार सौंप दिया और स्वयं विषयरूपी विषैले जल से भरे हुए गृहस्थाश्रमरूपी दुस्तर
जलाशय की भोगेच्छा से निवृत्त हो गये। अब पृथ्वीपति महाराज प्रियव्रत भगवान् की
इच्छा से राज्य शासन के कार्य में नियुक्त हुए। जो सम्पूर्ण जगत् को बन्धन से छुड़ाने
में अत्यन्त समर्थ हैं, उन आदिपुरुष श्रीभगवान् के
चरणयुगल का निरन्तर ध्यान करते रहने से यद्यपि उनके रागादि सभी मल नष्ट हो चुके थे
और उनका हृदय भी अत्यन्त शुद्ध था, तथापि बड़ों का मान
रखने के लिये वे पृथ्वी का शासन करने लगे। तदनन्तर उन्होंने प्रजापति विश्वकर्मा
की पुत्री बर्हिष्मती से विवाह किया। उससे उनके दस पुत्र हुए। वे सब उन्हीं के
समान शीलवान्, गुणी, कर्मनिष्ठ,
रूपवान् और पराक्रमी थे। उनसे छोटी ऊर्जस्वती नाम की एक कन्या भी
हुई। पुत्रों के नाम आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता,
घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि थे। ये सब नाम
अग्नि के भी हैं। इनमें कवि, महावीर और सवन- ये तीन
नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए। इन्होंने बाल्यावस्था से आत्मविद्या का अभ्यास करते हुए
अन्त में संन्यासाश्रम ही स्वीकार किया। इन निवृत्तिपरायण महर्षियों ने संन्यासाश्रम
में ही रहते हुए समस्त जीवों के अधिष्ठान और भवबन्धन से डरे हुए लोगों को आश्रय
देने वाले भगवान् वासुदेव के परमसुन्दर चरणारविन्दों का निरन्तर चिन्तन किया। उससे
प्राप्त हुए अखण्ड एवं प्रेष्ठ भक्तियोग से उनका अन्तःकरण सर्वथा शुद्ध हो गया और
उसमें श्रीभगवान् का आविर्भाव हुआ। तब देहादि उपाधि की निवृत्ति हो जाने से उनकी
आत्मा की सम्पूर्ण जीवों के आत्मभूत प्रत्यगात्मा में एकीभाव से स्थित हो गयी।
महाराज प्रियव्रत की दूसरी भार्या से उत्तम, तामस और
रैवत- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले
मन्वन्तरों के अधिपति हुए। इस प्रकार कवि आदि तीन पुत्रों के निवृत्तिपरायण हो
जाने पर राजा प्रियव्रत ने ग्यारह अर्बुद वर्षों तक पृथ्वी का शासन किया। जिस समय
वे अपनी अखण्ड पुरुषार्थमयी आर वीर्यशालिनी भुजाओं से धनुष की डोरी खींचकर टंकार
करते थे, उस समय डर के मारे सभी धर्मद्रोही न जाने कहाँ
छिप जाते थे। प्राणप्रिया बर्हिष्मती के दिन-दिन बढ़ने वाले अमोह-प्रमोद और
अभ्युत्थानादि क्रीड़ाओं के कारण तथा उसके स्त्री-जनोचित हाव-भाव, लज्जा से संकुचित मन्दाहास्य-युक्त चितवन और मन को भाने वाले विनोद आदि
से महामना प्रियव्रत विवेकहीन व्यक्ति की भाँति आत्म-विस्मृत से होकर सब भोगों को
भोगने लगे। किन्तु वास्तव में ये उनमें आसक्त नहीं थे।
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