श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 24-36 का हिन्दी अनुवाद

 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
पंचम स्कन्ध: विंश अध्यायः
श्लोक
24-36 का हिन्दी अनुवाद


इसी प्रकार क्षीर समुद्र से आगे उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तार वाला शाकद्वीप है, जो अपने ही समान परिमाण वाले मट्ठे के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमें शाक नाम का एक बहुत बड़ा वृक्ष है, वही इस क्षेत्र के नाम का कारण है। उसकी अत्यन्त मनोहर सुगन्ध से सारा द्वीप महकता रहता है। मेधातिथि नामक उसके अधिपति भी राजा प्रियव्रत के ही पुत्र थे। उन्होंने भी अपने द्वीप को सात वर्षों में विभक्त किया और उनमें उन्हीं के समान नाम वाले अपने पुत्र पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप और विश्वधार को अधिपति रूप से नियुक्त कर स्वयं भगवान् अनन्त में दत्तचित्त हो तपोवन को चले गये। इन वर्षों में भी सात मर्यादा पर्वत और सात नदियाँ ही हैं। पर्वतों के नाम ईशान, ऊरुश्रृंग, बलभद्र, शतकेसर, सहस्रस्रोत, देवपाल और महानस हैं तथा नदियाँ अनघा, आयुर्दा, उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पंचपदी, सहस्रस्रुति और निजधृति हैं। उस वर्ष के ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानव्रत और अनुव्रत नामक पुरुष प्राणायाम द्वारा अपने रजोगुण-तमोगुण को क्षीण कर महान् समाधि के द्वारा वायुरूप श्रीहरि की आराधना करते हैं। (और इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं-) ‘जो प्राणादि वृत्तिरूप अपनी ध्वजाओ के सहित प्राणियों के भीतर प्रवेश करके उनका पालन करते हैं तथा सम्पूर्ण दृश्य जगत् जिनके अधीन है, वे साक्षात् अन्तर्यामी वायु भगवान् हमारी रक्षा करें’। इसी तरह मट्ठे के समुद्र से आगे उसके चारों ओर उससे दुगुने विस्तार वाला पुष्करद्वीप है। वह चारों ओर से अपने ही समान विस्तार वाले मीठे जल के समुद्र से घिरा है। वहाँ अग्नि की शिखा के समान देदीप्यमान लाखों स्वर्णमय पंखड़ियों वाला एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है, जो ब्रह्मा जी का आसन माना जाता है। उस द्वीप के बीचोंबीच उसके पूर्वीय और पश्चिमी विभागों की मर्यादा निश्चित करने वाला मानसोत्तर नाम का एक ही पर्वत है। यह दस हजार योजन ऊँचा और उतना ही लम्बा है। इसके ऊपर चारों दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों की चार पुरियाँ हैं। इन पर मेरु पर्वत के चारों ओर घूमने वाले सूर्य के रथ का संवत्सररूप पहिया देवताओं के दिन और रात अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायन के क्रम से सर्वदा घूमा करता है। उस द्वीप का अधिपति प्रियव्रत पुत्र वीतिहोत्र भी अपने पुत्र रमणक और धातकि को दोनों वर्षों का अधिपति बनाकर स्वयं अपने बड़े भाइयों के समान भगवत्सेवा में ही तत्पर रहने लगा था। वहाँ के निवासी ब्रह्मारूप भगवान् हरि की ब्रह्म सालोक्यादि की प्राप्ति कराने वाले कर्मों से आराधना करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं- ‘जो साक्षात् कर्मफल रूप हैं और एक परमेश्वर में ही जिनकी पूर्ण स्थिति है तथा जिनकी सब लोग पूजा करते हैं, ब्रह्मज्ञान के साधनरूप उन अद्वितीय और शान्तस्वरूप ब्रह्म मूर्ति भगवान् को मेरा नमस्कार है’। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! इसके आगे लोकालोक नाम का पर्वत है। यह पृथ्वी के सब ओर सूर्य आदि के द्वारा प्रकाशित और अप्रकाशित प्रदेशों के बीच में उनका विभाग करने के लिये स्थित है। मेरु से लेकर मानसोत्तर पर्वत तक जितना अन्तर है, उतनी ही भूमि शुद्धोदक समुद्र के उस ओर है। उसके आगे सुवर्णमयी भूमि है, जो दर्पण के समान स्वच्छ है। इसमें गिरी हुई कोई वस्तु फिर नहीं मिलती, इसलिये वहाँ देवताओं के अतिरिक्त और कोई प्राणी नहीं रहता। लोकालोक पर्वत सूर्य आदि से प्रकाशित और अप्रकाशित भूभागों के बीच में है, इससे इसका यह नाम पड़ा है।

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