ग्रहों के
बल का मापक ‘ षड्बल .’
(ज्योतिष)
षड्बल फलित एवं सिद्धांत ज्योतिष का अभिन्न अंग है जिसमें ग्रहों की शक्तियों का अध्ययन किया जाता है। इन शक्तियों के अध्ययन का मुख्य उद्देश्य फलित कथन में सटीकता लाना है। किसी भी ग्रह के बल को जाने बिना उसका फल कथन सही से नहीं किया जा सकता। इसलिए ज्योतिष में षड्बल का विशेष महत्व है।
ग्रहों के बलाबल का आधार यथा 1. स्थानबल, 2. दिग्बल, 3. कालबल, 4. चेष्टाबल, 5. नैसर्गिक बल और 6. दृष्टिबल। इन्हें ही षड्बल कहते हैं।
1-स्थानबल.
1. उच्च बल: ग्रह अपने उच्च स्थान बिंदु से नीच स्थान बिंदु के भीतर स्थिति अनुसार बल प्राप्त करता है। उच्च बिंदु पर ग्रह को पूर्ण बल प्राप्त होता है और नीच बिंदु पर शून्य बल और जैसे-जैसे ग्रह अपने नीच बिंदु से उच्च बिंदु की तरफ बढ़ता है, वैसे ही उस ग्रह का बल भी बढ़ता जाता है।
2. सप्तवर्गीय बल: ग्रह के सप्तवर्गों में प्राप्त बल को सप्तवर्गीय बल कहते हैं। ये सात वर्ग होरा, द्रेष्काण, सप्तांश, नवांश, दशमांश, द्वादशांश और त्रिशांश हैं। मूलत्रिकोण, स्वराशि, मित्र राशि और शत्रु राशि में स्थिति अनुसार प्रत्येक वर्ग में ग्रह को बल प्राप्त होता है। ग्रहों की शत्रुता-मित्रता की स्थिति के पंचधामैत्री चक्र के अनुसार ही सप्तवर्गों में बल का मूल्यांकन किया जाता है।
3. ओजयुग्म बल: यह बल जन्म लग्न और नवांश में सम एवं विषम राशि में ग्रह की स्थिति के अनुसार ज्ञात किया जाता है।
4. केंद्रादि बल: कुंडली का केंद्र अर्थात् 1, 4, 7, 10 भाव, पणफर 2, 5, 8, 11 भाव और आपोक्लिम 3, 6, 9, 12 भाव में स्तिथ ग्रह को स्थिति के अनुसार बल प्राप्त होता है।
5. द्रेष्काण बल: ग्रह को राशि के द्रेष्काण के अनुसार अर्थात एक राशि के तीन भागों में से ग्रह जिस भाग में होता है उसके अनुसार बल प्राप्त होता है।
इन पांचों प्रकार के स्थान बलों को जोड़ने से कुल स्थानबल प्राप्त होता है।
उपरोक्त के अतिरिक्त एक स्थानबल और भी है, जिसे स्थानीय बल कहते हैं। ग्रह का स्थानीय बल उसकी भाव में स्थिति के अनुसार प्राप्त होता है अर्थात ग्रह यदि भावमध्य पर है तो उसका बल पूर्ण होता है और जितना-2 भावमध्य से दूर जाता है, उसके बल में कमी आती जाती है। भावसंधि पर ग्रह का बल शून्य होता है। फलकथन के लिए यह बल अपना महत्व रखता है, इसलिए ग्रह का यह बल जानने से फल में सटीकता आती है।
मान लें दो व्यक्तियों की कुंडलियां देखने में एक सी ही हैं और मंगल दशम भाव में एक के भावमध्य पर है और दूसरे के भावमध्य से कहीं दूर चला गया है। मंगल देखने में दोनों कुंडलियों में दशम भाव पर ही है। उसकी स्थानीय स्थिति भिन्न होने के कारण दोनों व्यक्तियों को अपने कर्मक्षेत्र में भिन्न-भिन्न फल प्राप्त होगा। जिसका मंगल भावमध्य पर है, वह किसी उच्चपद पर होगा और दूसरा व्यक्ति साधारण पद पर।
2-दिग्बल.
3-कालबल.
जन्म समय के आधार पर जो बल ग्रहों को प्राप्त होता है, उसे कालबल कहते हैं। जैसे: जन्म का समय रात का है या दिन का, जन्म किस पक्ष में हुआ, दिन-रात के किस भाग में हुआ, जन्म समय वर्ष-मास-वार का अधिपति कौन था, जन्म किस होरा में हुआ, जन्म समय सूर्य उत्तरायण था या दक्षिणायन आदि सबका समय से संबंध होने के कारण इसे कालबल कहा जाता है।
कालबल के 9 प्रकार..
1. नतोन्नत बल: जातक का जन्म दिन में हुआ या रात में, इस प्रकार प्राप्त बल को नतोन्नत बल कहते हैं। जो ग्रह दोपहर में बली होते हैं वह उन्नत बल और जो ग्रह अर्धरात्रि को बली होते हैं वह नत बल प्राप्त करते हैं। चंद्र, मंगल और शनि को रात्रि में जन्म होने पर नतबल अधिक प्राप्त होते हैं और सूर्य, गुरु और शुक्र को रात्रि में जन्म होने पर उन्नत बल कम प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार दिन में जन्म में इसके विपरीत नतबल कम तथा उन्नत बल अधिक होते हैं।
2. पक्ष बल: जन्म समय का पक्ष अर्थात कृष्ण पक्ष या शुक्ल पक्ष भी महत्वपूर्ण है। शुक्ल पक्ष में नैसर्गिक शुभ ग्रहों के बल में वृद्धि होती है तथा अशुभ ग्रहों को शून्य बल प्राप्त होता है और इसके विपरीत नैसर्गिक अशुभ ग्रहों का कृष्ण पक्ष में बल बढ़ता है और शुभ ग्रह बलहीन हो जाते हैं।
3. त्रिभाग बल: त्रिभाग अर्थात तीन भाग दिनमान और रात्रिमान को तीन-तीन बराबर भागों में विभक्त किया जाता है। प्रत्येक भाग का स्वामित्व किसी न किसी ग्रह को प्राप्त है। दिन के पहले भाग का स्वामी बुध, दूसरे का सूर्य, तीसरे का शनि है। रात्रि के पहले भाग का स्वामी चंद्र, दूसरे का शुक्र, तीसरे का मंगल होता है। गुरु को सदैव बली माना जाता है। जन्म जिस भाग में हुआ होता है, उसी ग्रह को बल प्राप्त होता है, शेष ग्रहों को शून्य बल प्राप्त होता है।
4. वर्षाधिपति बल: वर्षाधिपति बल को आब्द-बल भी कहते हैं। जातक के जन्म समय जो वर्ष चल रहा है उसके प्रारंभ के साप्ताहिक दिन का स्वामी वर्षाधिपति कहलाता है। वर्ष के प्रारंभ के दिन का जो स्वामी होगा, उस ग्रह को बल प्राप्त होगा, अन्य सभी ग्रह बलहीन माने जाते हैं।
5. मासाधिपति बल: जन्म महीने के प्रथम दिन का जो ग्रह स्वामी होता है, उसे मासाधिपति कहते हैं। उसी ग्रह को मासाधिपति बल प्राप्त होता है। शेष सभी ग्रहों की शून्य बल प्राप्त होता है।
6. वाराधिपति बल: जिस दिन जातक का जन्म होता है उस दिन के स्वामी ग्रह को बल प्राप्त होता है, अन्य सभी ग्रहों को शून्य बल प्राप्त होता है।
7. होराधिपति: दिन-रात को मिल.कर 24 होरा मानी जाती हैं। प्रत्येक होरा को स्वामित्व प्राप्त है। जातक का जन्म जिस होरा में होता है, उस होरा का जो ग्रह स्वामी होता है, उसे बल प्राप्त होता है। शेष ग्रहों को शून्य बल प्राप्त होता है।
8. अयनबल: विषुवत रेखा से प्रत्येक ग्रह उत्तर या दक्षिण में स्थित होता है और ग्रह अपनी इसी स्थिति के अनुसार बल प्राप्त करता है। इसे अयनबल कहते हैं। सूर्य, मंगल, शुक्र और गुरु जब उत्तरायण होते हैं, तो उनको अधिकतम बल प्राप्त होता है और चंद्र, शनि जब दक्षिणायन होते हैं तो उन्हें अधिकतम बल प्राप्त होता है।
9. युद्धबल: जब दो या दो से अधिक ग्रह एक ही राशि में हों और इनमें परस्पर 10 से कम का अंतर हो तो उनके भीतर ग्रहयुद्ध माना जाता है। विजेता ग्रह वह होता है जिसके भोगांश कम होते हैं। विजेता ग्रह को युद्ध बल प्राप्त होता है। सूर्य और चंद्र के अतिरिक्त सभी ग्रह युद्ध में भाग लेते हैं।
4-चेष्टाबल.
5- नैसर्गिक बल.
प्रत्येक ग्रह को प्राकृतिक तौर पर बल दिया गया है। यह बल ग्रहों की शक्ति या प्रकाश पर निर्भर करता है। सभी ग्रहों में सूर्य सबसे अधिक प्रकाशवान है इसलिए उसे सबसे अधिक बली और शनि को सबसे कम शक्तिशाली मानते हैं। सूर्य से शनि तक ग्रहों के बल का क्रम इस प्रकार है। सूर्य, चंद्र, शुक्र, गुरु, बुध, मंगल, शनि। इसी क्रम में ग्रहों का बल कम होता है। यह बल सदैव हर कुंडली में एक समान होता है।
6-दृष्टिबल.
दृष्टिबल को ही दृग्बल कहते हैं। ग्रह अपने से सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। लेकिन मंगल, गुरु, शनि विशेष दृष्टि भी रखते हैं। कोई भी ग्रह 30 अंशों के पूर्व और 300 अंशों के बाद नहीं देख सकता। पूर्ण दृष्टि के अतिरिक्त प्रत्येक ग्रह अपने से तीसरे भाव में एक पाद, चतुर्थ में तीन पाद, पांचवें भाव में दो पाद, सातवें में चार पाद, आठवें में तीन पाद, नौवें में दो पाद और दशम भाव में एक पाद दृष्टि देते हैं। ग्रह की भाव पर शुभ और अशुभ दृष्टि, ग्रह पर किसी अन्य ग्रह की शुभ और अशुभ दृष्टि, इन सब को जोड़कर जो बल प्राप्त होता है, उसे दृष्टिबल अर्थात् दृग्बल कहते हैं। फलित ज्योतिष में इसका बहुत महत्व है।
षड्बल में हर ग्रह की शक्ति अर्थात बल को ज्ञात कर यह जाना जाता है कि ग्रह कितना फल देगा। जो ग्रह अधिक बलवान होगा, वह कुंडली में जातक को अधिक फल देगा और जो बलहीन होगा, वह फल देने में कमजोर होगा या फल नहीं देगा।
यदि कुंडली में दो या दो से अधिक ग्रह एक ही भाव में हैं तो जिस ग्रह के षड्बल अधिक होंगे, वह उस भाव का फल अधिक देगा। दूसरे ग्रह अपने बल अनुसार कम फल देंगे।
कभी-कभी देखने में आता है कि जिस ग्रह के बल अधिक हैं, वह शुभ फल नहीं दे पा रहा है, ऐसी स्थिति तब होती है, जब कोई ग्रह कुंडली में अशुभ हो या अकारक हो और उसके षड्बल अधिक हों। उस स्थिति में उसके अशुभ फल में ही वृद्धि होगी शुभफल में नहीं।
दशा-अंतर्दशा का फल भी ग्रह के षड्बल पर निर्भर करता है। यदि कोई ग्रह शुभ फलदायक है और उसे षड्बल में अधिकतम अंक प्राप्त हैं तो वह अपनी दशा में विशेष फल देगा। इसके विपरीत अशुभ फलदायक ग्रह जिसके षड्बल अधिक हैं अपनी दशा-अंतर्दशा में अशुभ फल देगा।
यदि दशानाथ शुभ हो और अंतर्दशानाथ अशुभ हो और दोनों का अधिक बल हो तो ऐसी स्थिति में अंतर्दशानाथ के अशुभ फल ही मिलेंगे क्योंकि दशाफल में दशा तो बहुत समय तक एक ही रहती है उसके अंतर्गत भेद अंतर्दशा के अनुसार प्राप्त होते हैं।
ग्रह के इष्ट और कष्टफल द्वारा ग्रह के शुभ और अशुभ फल का विश्लेषण करने में सहायता मिलती है। यह फल उस ग्रह या भाव के स्वामी की दशा-अंतर्दशा में घटित होता है।
इष्टफल और कष्टफल निकालने के लिए ग्रह का उच्चबल और चेष्टाबल लिया जाता हैं। उच्चबल और चेष्टाबल के गुणनफल का वर्गमूल इष्टफल होता है। 60 उच्चबल और 60 चेष्टा बल के गुणनफल का वर्गमूल कष्टफल होता है।
उच्चबल और चेष्टाबल दोनों का संबंध ग्रह के द्वारा सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने से है। सूर्य के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते समय ग्रह कभी पृथ्वी के निकट और कभी अधिकतम दूरी पर होता है। इसी के अनुरूप कभी-कभी ग्रह वक्री भी प्रतीत होते है, गति कभी धीमी और कभी तेज प्रतीत होती है। ग्रह का प्रभाव जातक पर भी इसके अनुसार शुभ और अशुभ होता रहता है। इसलिए इष्टफल और कष्टफल में इन्हें विशेष महत्व दिया गया है।
यदि ग्रह कुंडली में शुभ फलदायक है तभी उसके शुभ फलों में वृद्धि होगी। इसके विपरीत यदि अकारक या अशुभ ग्रह के इष्टफल अधिक हैं तो शुभ फल नहीं मिलेगा।
जिस गृह के षड्बल अधिक होते हैं, वह सदैव तो नहीं लेकिन अपनी दशा-अंतर्दशा में सबसे अधिक शुभ फल देने में सक्षम होता है। यदि दशा-अंतर्दशा दोनों को अधिक षड्बल प्राप्त है तो उस समय जातक को विशेष शुभ फल प्राप्त होगा। यदि दशानाथ से अंतर्दशानाथ के षड्बल कम हैं, उस समय फल में न्यूनता आ जाती है। इस प्रकार ग्रह का शुभ या अशुभ फल सदैव एक सा नहीं रहता।
लग्नेश, चंद्र और सूर्य में से जिसके षड्बल सबसे अधिक होंगे वही सबसे अधिक बलवान होगा।
लग्न का बलवान होने का तात्पर्य केवल लग्नेश के षड्बल से ही नहीं अपितु भावबल से भी है।
भावबल तीन प्रकार के होते हैं: 1. भावाधिपति बल, 2. भाव दिग्बल 3. भाव दृष्टिबल। इन तीनों के योग को भावबल कहते हैं।
फलित करते समय यदि भाव बलों को भी भली-भांति देख लिया जाए तो फलकथन में किसी प्रकार की कमी नहीं होगी। जिस भाव को अधिक बल प्राप्त होंगे, जातक को उस भाव से विशेष लाभ होगा।
भाव अधिपति की दशा-अंतर्दशा में विशेष फल प्राप्त होगा। यदि उस भाव में कोई अशुभ ग्रह गोचर करे उस समय ही भाव के फल में कमी आएगी और शुभ ग्रह जिसके षड्बल भी अधिक हों, वह गोचर करे तो शुभ फलों की वृद्धि होगी।
ज्योतिषी को फलकथन के समय षड्बल, भावबल पर पूर्ण ध्यान देना चाहिए। यदि ज्योतिषी चाहे तो षड्बल से ही पूर्ण फलकथन कर सकता है। किसी भाव के फल को कहने में वह सफल हो सकता है। यदि ग्रह अपनी उच्च स्थिति पर है तो षड्बल भी अधिक ही होंगे। इसलिए उनका शुभ फल भी अधिक प्राप्त होगा। हां यह अवश्य देख लें कि ग्रह कुंडली में अशुभ या अकारक तो नहीं। यदि अकारक हुआ तो शुभ फल प्राप्त नहीं होगा।
यदि कोई ग्रह शुभ है और ग्रह के षड्बल कम हों तो उस ग्रह का उपाय करना चाहिए। रत्न धारण करें या पूजा-पाठ से उस ग्रह की शक्ति को बढ़ाएं। यदि ग्रह अशुभ है और षड्बल अधिक है तो उसके बल को कम करने के लिए शांति कराएं ताकि उसके अशुभ फल में कमी आए और जातक को मानसिक तौर पर शांति और लाभ हो।
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