(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
पंचम स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः
श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद
नरकों की विभिन्न गतियों का वर्णन.
राजा परीक्षित ने पूछा- महर्षे! लोगों को जो ये ऊँची-नीची गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें इतनी विभिन्नता क्यों है? श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! कर्म करने वाले पुरुष सात्त्विक, राजस और तामस- तीन प्रकार के होते हैं तथा उनकी श्रद्धाओं में भी भेद रहता है। इस प्रकार स्वभाव और श्रद्धा के भेद से उनके कर्मों की गतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं और न्यूनाधिक रूप में ये सभी गतियाँ सभी कर्ताओं को प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार निषिद्ध कर्मरूप पाप करने वालों को भी उनकी श्रद्धा की असमानता के कारण समान फल नहीं मिलता। अतः अनादि अविद्या के वशीभूत होकर कामनापूर्वक किये हुए उन निषिद्ध कर्मों के परिणाम में जो हजारों तरह की नारकी गतियाँ होती हैं, उनका विस्तार से वर्णन करेंगे। राजा परीक्षित् ने कहा- भगवन्! आप जिनका वर्णन करना चाहते हैं, वे नरक इसी पृथ्वी के कोई देश विशेष हैं अथवा त्रिलोकी से बाहर या इसी के भीतर किसी जगह हैं? श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! वे त्रिलोकी के भीतर ही हैं तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊपर स्थित हैं। इसी दिशा में अग्निष्वात्त आदि पितृगण रहते हैं, वे अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक अपने वंशधरों के लिये मंगलकामना किया करते हैं। उन नरकलोक में सूर्य के पुत्र पितृराज भगवान् यम अपने सेवकों के सहित रहते हैं तथा भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए, अपने दूतों द्वारा वहाँ लाये हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों के अनुसार पाप का फल दण्ड देते हैं। परीक्षित! कोई-कोई लोग नरकों की संख्या इक्कीस बताते हैं। अब हम नाम, रूप और लक्षणों के अनुसार उनका क्रमशः वर्णन करते हैं। उनके नाम ये हैं- तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टकशाल्मती, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि और अयःपान। इनके सिवा क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन और सूचीमुख- ये सात और मिलाकर कुल अट्ठाईस नरक तरह-तरह की यातनाओं को भोगने के स्थान हैं। जो पुरुष दूसरों के धन, सन्तान अथवा स्त्रियों का हरण करता है, उसे अत्यन्त भयानक यमदूत कालपाश में बाँधकर बलात् तामिस्र नरक में गिरा देते हैं। उस अन्धकारमय नरक में उसे अन्न-जल न देना, डंडे लगाना और भय दिखलाना आदि अनेक प्रकार के उपायों से पीड़ित किया जाता है। इससे अत्यन्त दुःखी होकर वह एकाएक मुर्च्छित हो जाता है। इसी प्रकार जो पुरुष किसी दूसरे को धोखा देकर उसकी स्त्री आदि को भोगता है, वह अन्धतामिस्र नरक में पड़ता है। वहाँ की यातनाओं में पड़कर वह जड़ से कटे हुए वृक्ष के समान, वेदना के मारे सारी सुध-बुध खो बैठता है और उसे कुछ भी नहीं सूझ पड़ता। इसी से इस नरक को अन्धतामिस्र कहते हैं। जो पुरुष इस लोक में ‘यह शरीर ही मैं हूँ और ये स्त्री-धनादि मेरे हैं’ ऐसी बुद्धि से दूसरे प्राणियों से द्रोह करके निरन्तर अपने कुटुम्ब के ही पालन-पोषण में लगा रहता है, वह अपना शरीर छोड़ने पर अपने पाप के कारण स्वयं ही रौरव नरक में गिरता है। इस लोक में उसने जिन जीवों को जिस प्रकार कष्ट पहुँचाया होता है, परलोक में यमयातना का समय आने पर वे जीव ‘रुरु’ होकर उसे उसी प्रकार कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिय इस नरक का नाम ‘रौरव’ है। ‘रुरु’ सर्प से भी अधिक क्रूर स्वभाव वाले एक जीव का नाम है।
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