(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
पंचम स्कन्ध: पंचम अध्यायः
श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद
ऋषभजी का अपने पुत्रों को उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना श्रीऋषभदेव जी ने कहा- पुत्रो! इस मर्त्यलोक में यह मनुष्य शरीर दुःखमय विषयभोग प्राप्त करने के लिये ही नहीं है। ये भोग तो विष्ठाभोजी सूकर-कूकरादि को भी मिलते ही हैं। इस शरीर से दिव्य तप ही करना चाहिये, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो; क्योंकि इसी से अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है। शास्त्रों ने महापुरुषों की सेवा को मुक्ति का और स्त्रीसंगी कामियों के संग को नरक का द्वार बताया है। महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त, क्रोधहीन, सबके हितचिन्तक और सदाचारसम्पन्न हों अथवा मुझ परमात्मा के प्रेम को ही जो एकमात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयों की ही चर्चा करने वाले लोगों में तथा स्त्री, पुत्र और धन आदि सामग्रियों से सम्पन्न घरों में जिनकी अरुचि हो और जो लौकिक कार्यों में केवल शरीर निर्वाह के लिये ही प्रवृत्त होते हों। मनुष्य अवश्य प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये ही होती है। मैं इसे अच्छा नहीं समझता, क्योंकि इसी के कारण आत्मा को यह असत् और दुःखदायक शरीर प्राप्त होता है। जब तक जीव को आत्मतत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती, तभी तक अज्ञानवश देहादि के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जब तक यह लौकिक-वैदिक कर्मों में फँसा रहता है, तब तक मन में कर्म की वासनाएँ भी बनी ही रहती हैं और इन्हीं से देहबन्धन की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अविद्या के द्वारा आत्मस्वरूप के ढक जाने से कर्मवासनाओं के वशीभूत हुआ चित्त मनुष्य को फिर कर्मों में ही निवृत्त करता है। अतः जब तक उसको मुझ वासुदेव में प्रीति नहीं होती, तब तक वह देहबन्धन से छूट नहीं सकता। स्वार्थ में पागल जीव जब तक विवेक-दृष्टि का आश्रय लेकर इन्द्रियों की चेष्टाओं को मिथ्या नहीं देखता, तब तक आत्मस्वरूप की स्मृति को बैठने के कारण वह अज्ञानवश विषयप्रधान गृह आदि में आसक्त रहता है और तरह-तरह के क्लेश उठाता रहता है। स्त्री और पुरुष इन दोनों का जो परस्पर दाम्पत्य-भाव है, इसी को पण्डितजन उनके हृदय की दूसरी स्थूल एवं दुर्भेद्य ग्रन्थि कहते हैं। देहाभिमानरूपी एक-एक सूक्ष्म ग्रन्थि तो उनमें अलग-अलग पहले से ही है। इसी के कारण जीव को देहेन्द्रियादि के अतिरिक्त घर, खेत, पुत्र, स्वजन और धन आदि में भी ‘मैं’ और ‘मेरेपन' का मोह हो जाता है। जिस समय कर्मवासनाओं के कारण पड़ी हुई इसकी यह दृढ़ हृदय-ग्रन्थि ढीली हो जाती है, उसी समय यह दाम्पत्य भाव से निवृत्त हो जाता है और संसार के हेतुभूत अहंकार को त्यागकर सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो परमपद प्राप्त कर लेता है।
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