(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
पंचम स्कन्ध: पंचम अध्यायः
श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद
जिसको मेरे लोक की इच्छा हो अथवा जो मेरे अनुग्रह की प्राप्ति को ही परम पुरुषार्थ मानता हो-वह राजा हो तो अपनी अबोध प्रजा को, गुरु अपने शिष्यों को और पिता अपने पुत्रों को ऐसी ही शिक्षा दे। अज्ञान के कारण यदि वे उस शिक्षा के अनुसार न चलकर कर्म को ही परम पुरुषार्थ मानते रहें, तो भी उन पर क्रोध न करके उन्हें समझा-बुझाकर कर्म में प्रवृत्त न होने दे। उन्हें विषयासक्तियुक्त काम्यकर्मों में लगाना तो ऐसा ही है, जैसे किसी अंधे मनुष्य को जान-बूझकर गढ़े में ढकेल देना। इससे भला, किस पुरुषार्थ की सिद्धि हो सकती है। अपना सच्चा कल्याण किस बात में है, इसको लोग नहीं जानते; इसी से वे तरह-तरह की भोग-कामनाओं में फँसकर तुच्छ क्षणिक सुख के लिये आपस में वैर ठान लेते हैं और निरन्तर विषय भोगों के लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं। वे मूर्ख इस बात पर कुछ भी विचार नहीं करते कि इस वैर-विरोध के कारण नरक आदि घोर दुःखों की प्राप्ति होगी। गढ़े में गिरने के लिये उलटे रास्ते से जाते हुए मनुष्य को जैसे आँख वाला पुरुष उधर नहीं जाने देता, वैसे ही अज्ञानी मनुष्य को अविद्या में फँसकर दुःखों की ओर जाते देखकर कौन ऐसा दयालु और ज्ञानी पुरुष होगा, जो जान-बूझकर भी उसे उसी राह पर जाने दे या जाने के लिये प्रेरणा करे।
जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है। मेरे इस अवतार-शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिये बुद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्त्व ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है, मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर पीछे की ओर ढकेल दिया है, इसी से सत्पुरुष मुझे ‘ऋषभ’ कहते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें