(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः
श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद
तुम सब एक ही धर्म में तत्पर हो और तुम्हारा
स्वभाव भी एक-सा ही है; इसलिये तुम्हारे ही समान धर्म और स्वभाव वाली वह सुन्दरी कन्या तुम सभी
की पत्नी होगी तथा तुम सभी में उसका समान अनुराग होगा। तुम लोग मेरी कृपा से दस
लाख दिव्य वर्षों तक पूर्ण बलवान् रहकर अनेकों प्रकार के पार्थिव और दिव्य भोग
भोगोगे। अन्त में मेरी अविचल भक्ति से हृदय का समस्त वासनारूप मल दग्ध हो जाने पर
तुम इस लोक तथा परलोक के नरकतुल्य भोगों से उपरत होकर मेरे परमधाम को जाओगे। जिन
लोगों के कर्म भगवदर्पण बुद्धि से होते हैं और जिनका सारा समय मेरी कथा वार्ताओं
में ही बीतता है, वे गृहस्थाश्रम में रहें तो भी घर उनके
बन्धन का कारण नहीं होते। वे नित्यप्रति मेरी लीलाएँ सुनते रहते हैं, इसलिये ब्रह्मवादी वक्ताओं के द्वारा मैं ज्ञान-स्वरूप परब्रह्म उनके
हृदय में नित्य नया-नया-सा भासता रहता हूँ और मुझे प्राप्त कर लेने पर जीवों को न
मोह हो सकता है, न शोक और न हर्ष ही। श्रीमैत्रेय जी कहते
हैं- भगवान् के दर्शनों से प्रचेताओं का रजोगुण-तमोगुण मल नष्ट हो चुका था। जब
उनसे सकल पुरुषार्थों के आश्रय और सबके परम सुहृद् श्रीहरि ने इस प्रका कहा,
तब वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणी से कहने लगे। प्रचेताओं ने कहा-
प्रभो! आप भक्तों के क्लेश दूर करने वाले हैं, हम आपको
नमस्कार करते हैं। वेद आपके उदार गुण और नामों का निरूपण करते हैं। आपके वेग मन और
वाणी के वेग से भी बढ़कर हैं तथा आपका स्वरूप सभी इन्द्रियों की गति से परे हैं।
हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। आप अपने स्वरूप में स्थित रहने के कारण नित्य
शुद्ध और शान्त हैं, मनरूप निमित्त के कारण हमें आपमें यह
मिथ्या द्वैत भास रहा है। वास्तव में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति
और लय के लिये आप माया के गुणों को स्वीकार करके ही ब्रह्मा, विष्णु और महादेव रूप धारण करते हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। आप
विशुद्ध सत्त्वरूप हैं, आपका ज्ञान संसार बन्धन को दूर कर
देता है। आप ही समस्त भागवतों के प्रभु वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण हैं, आपको नमस्कार है। आपकी ही नाभि से ब्रह्माण्डरूप कमल प्रकट हुआ था,
आपके कण्ठ में कमलकुसुमों की माला सुशोभित है तथा आपके चरण कमल
के समान कोमल हैं; कमलनयन! आपको नमस्कार है। आप कमलकुसुम
की केसर के समान स्वच्छ पीताम्बर धारण किये हुए हैं, समस्त
भूतों के आश्रयस्थान हैं तथा सबके साक्षी हैं; हम आपको नमस्कार
करते हैं। भगवन्! आपका यह स्वरूप सम्पूर्ण क्लेशों की निवृत्ति करने वाला है;
हम अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेषादि क्लेशों से पीड़ितों के सामने आपने इसे प्रकट किया है।
इससे बढ़कर हम पर और क्या कृपा होगी। अमंगलहारी प्रभो! दीनों पर कृपा करने वाले
समर्थ पुरुषों को इतनी ही कृपा करनी चाहिये कि समय-समय पर उन दीनजनों को ‘ये हमारे हैं’ इस प्रकार स्मरण कर लिया करें।
इसी से उनके आश्रितों का चित्त शान्त हो जाता है। आप तो क्षुद्र-से-क्षुद्र
प्राणियों के भी अन्तःकरणों में अन्तर्यामी रूप से विराजमान रहते हैं। फिर आपके उपासक
हम लोग जो-जो कामनाएँ करते हैं, हमारी उन कामनाओं को आप
क्यों न जान लेंगे। जगदीश्वर! आप मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले और स्वयं
पुरुषार्थस्वरूप हैं। आप हम पर प्रसन्न हैं, इससे बढ़कर
हमें और क्या चाहिये। बस, हमारा अभीष्ट वर तो आपकी
प्रसन्नता ही है। तथापि, नाथ! हम एक वर आप से अवश्य
माँगते हैं। प्रभो! आप प्रकृति आदि से परे हैं और आपकी विभूतियों का भी कोई अन्त
नहीं हैं; इसलिये आप ‘अनन्त’
कहे जाते हैं।
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