(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः
श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
प्रचेताओं
को श्रीविष्णु भगवान् का वरदान.
विदुर
जी ने पूछा- ब्रह्मन्! आपने राजा प्राचीनबर्हि के जिन पुत्रों का वर्णन किया था, उन्होंने रुद्रगीत के द्वारा
श्रीहरि की स्तुति करके क्या सिद्धि प्राप्त की? बार्हस्पत्य!
मोक्षाधिपति श्रीनारायण के अत्यन्त प्रिय भगवान् शंकर का अकस्मात् सान्निध्य
प्राप्त करके प्रचेताओं ने मुक्ति तो प्राप्त की ही होगी; इससे पहले इस लोक में अथवा परलोक में भी उन्होंने क्या पाया-वह बतलाने
की कृपा करें। श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! पिता के आज्ञाकारी प्रचेताओं ने
समुद्र के अंदर खड़े रहकर रुद्रगीत के जपरूपी यज्ञ और तपस्या के द्वारा समस्त
शरीरों के उत्पादक भगवान् श्रीहरि को प्रसन्न कर लिया। तपस्या करते-करते दस हजार
वर्ष बीत जाने पर पुराणपुरुष श्रीनारायण अपनी मनोहर कान्ति द्वारा उनके तपस्याजनित
क्लेश को शान्त करते हुए सौम्य विग्रह से उनके सामने प्रकट हुए। गरुड़ जी के कंधे
पर बैठे हुए श्रीभगवान् ऐसे जान पड़ते थे, मानो सुमेरु के
शिखर पर कोई श्याम घटा छायी हो। उनके श्रीअंग में मनोहर पीताम्बर और कण्ठ में
कौस्तुभ मणि सुशोभित थी। अपनी दिव्य प्रभा से वे सब दिशाओं का अन्धकार दूर कर रहे
थे। चमकीले सुवर्णमय आभूषणों से युक्त उनके कमनीय कपोल और मनोहर मुखमण्डल की
अपूर्व शोभा हो रही थी। उनके मस्तक पर झिलमिलाता हुआ मुकुट शोभायमान था। प्रभु की
आठ भुजाओं में आठ आयुध थे; देवता, मुनि और पार्षदगण सेवा में उपस्थित थे तथा गरुड़ जी किन्नरों की भाँति
साममय पंखों की ध्वनि से कीर्तिगान कर रहे थे। उनकी आठ लंबी-लंबी स्थूल भुजाओं के
बीच में लक्ष्मी जी से स्पर्धा करने वाली वनमाला विराजमान थी। आदिपुरुष श्रीनारायण
ने इस प्रकार पधारकर अपने शरणागत प्रचेताओं की ओर दयादृष्टि से निहारते हुए मेघ के
समान गम्भीर वाणी में कहा। श्रीभगवान् ने कहा- राजपुत्रों! तुम्हारा कल्याण हो।
तुम सब में परस्पर बड़ा प्रेम है और स्नेहवश तुम एक ही धर्म का पालन कर रहे हो।
तुम्हारे इस आदर्श सौहार्द से मैं बड़ा प्रसन्न हूँ। मुझसे वर मांगो। जो पुरुष
सायंकाल के समय प्रतिदिन तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका अपने
भाइयों में अपने ही समान प्रेम होगा तथा समस्त जीवों के प्रति मित्रता का भाव हो
जायेगा। जो लोग सायंकाल और प्रातःकाल एकाग्रचित्त से रुद्रगीता द्वारा मेरी स्तुति
करेंगे, उनको मैं अभीष्ट वर और शुद्ध बुद्धि प्रदान
करूँगा। तम लोगों ने बड़ी प्रसन्नता से अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की है,
इससे तुम्हारी कमनीय कीर्ति समस्त लोकों में फैल जायेगी।
तुम्हारे एक बड़ा ही विख्यात पुत्र होगा। वह गुणों में किसी भी प्रकार ब्रह्मा जी
से कम नहीं होगा तथा अपनी सन्तान से तीनों लोकों को पूर्ण कर देगा। राजकुमारों!
कण्डु ऋषि के तपोनाश के लिये इन्द्र की भेजी हुई प्रम्लोचा अप्सरा से एक कमलनयनी
कन्या उत्पन्न हुई थी। उसे छोड़कर वह स्वर्गलोक को चली गयी। तब वृक्षों ने उस
कन्या को लेकर पाला-पोसा। जब वह भूख से व्याकुल होकर रोने लगी, तब ओषधियों के राजा चन्द्रमा ने दयावश उसके मुँह में अपनी अमृतवर्षिणी
तर्जनी अँगुली दे दी। तुम्हारे पिता आजकल मेरी सेवा (भक्ति) में लगे हुए हैं;
उन्होंने तुम्हें सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी है। अतः तुम
शीघ्र ही उस देवोपम सुन्दरी कन्या से विवाह कर लो।
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