उपनयन-संस्कार.
शास्त्र में मानव समुदाय को वर्ण में विभाजित किया गया हैं; इसलिए अपने वर्णेश/शाखेश के अनुसार उपनयन संस्कार विधि अपनाना चाहिये, इससे मानसिक विकास और कर्तव्य बोध परिस्कृत होता हैं। उपनयन संस्कार विधि के लिए तथा उपनयन के प्रयोजन हेतु शास्त्र में बहुत कुछ बताया गया हैं, उसमें से जानने योग्य महत्वपूर्ण बाते निम्नानुसार हैं:-
वर्ण |
वर्णेश |
ब्राह्मण |
गुरु, शुक्र |
क्षत्रिय |
सूर्य, मंगल |
वैश्य |
चन्द्र |
शुद्र और अन्त्यज |
बुध और शनि |
शाखेश |
|
ऋग्वेद |
गुरु (वृहस्पति) |
यजुर्वेद |
शुक्र |
सामवेद |
मंगल |
अथर्ववेद |
बुध |
विप्राधीशौ
भार्गवेज्यौ कुजार्कौ
राजन्यानामोषधीशो विशां च।
शूद्राणां
ज्ञश्चान्त्यजानां शनि:
स्याच्छाखेशा: स्युर्जीवशुक्रारसौम्या:।। (मुहूर्त्तचिंतामणिः-5/43)
प्रयोजन.
शाखेशवारतनुवीर्यमतीव
शस्तं
शाखेशसूर्यशशिजीवबले व्रतं सत्।
जीवे भृगौ रिपुगृहे
विजिते च
नीचे
स्याद् वेदशास्त्रविधिना रहितो व्रतेन।। (मुहूर्त्तचिंतामणिः-5/44)
अर्थ- यज्ञोपवीत संस्कार में शाखेश (अपने वेद के स्वामी) का वार, लग्न और गोचर प्रकरणोक्त बल यज्ञोपवित में अत्यंत प्रशस्त होता है।
ऋग्वेद वालों के लिए-बृहस्पतिवार और बृहस्पति की धनु या मीन लग्न और बृहस्पति का बल होना अत्यंत श्रेष्ठ माना गया है।
यजुर्वेदियों के लिए- शुक्रवार और शुक्रकी तुला या वृषभ लग्न और शुक्रका बल ये सब अत्यंत श्रेष्ठ हैं।
यदि उपनयन के समय बृहस्पति और शुक्र (शाखेश एवं वर्णेश भी) अपने शत्रु की राशि में (अर्थात् गुरु- मिथुन, वृषभ, तुला राशि में और शुक्र- सिंह, कर्क राशि में, मंगल- मिथुन, कन्या राशि में तथा बुध- कर्क राशि में हो) या ये ग्रह-युद्ध में पराजित हों तथा अपनी नीच राशि में हों तो उपनीत बालक वेद और शास्त्र से रहित नास्तिक होता है।
अर्थात् शाखेश और वर्णेश के उत्तम योग होने पर बालक उत्तम ज्ञानवान् होता है और इनका सहयोग न होने पर नीच या हीन होने पर बालक के ज्ञान पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
इसके लिए अपने वेद, अपनी शाखा का ज्ञान होना आवश्यक हैं, जिसके अनुसार यज्ञोपवीत (जनेऊ) संस्कार होना चाहिए।
जन्मभाद् दुष्टगे
सिंहे नीचे वा शत्रुभे गुरौ।
मौजीबन्धः शुभः
प्रोक्तञ्चैत्रे मीनगते रवौ॥
गोचराष्टकवर्गाभ्यां
यदि शुद्धिर्न जायते।
तदोपनयनं कार्य
चैत्रे मीनगते रवौ।।
मौजीबन्धः शुभः
प्रोक्तश्चैत्रे मीनगते रवौ।।
मेखलाबन्धनं कार्यं
चैत्रे मीनगते रवौ॥ (पीयूषधारायां_ज्योतिर्निबन्धे)
हरौ सिंहांशके जीवे
नीचः नीचभांशके
जीवभार्गवयोरस्ते
सिंहस्थे देवतागुरौ।
इसी से वेदों में इसका अधिकार प्राप्त होता है।
विधि-विधान से अपनाये गये क्रिया संपन्न उपनयन संकर से सिद्धि होती है और कल्याणकारी मार्ग प्रशस्त होता है।
तीन पीढ़ी तक यदि यज्ञोपवीत नहीं हो, तो वो व्रात्य पतित सावित्रीक कहलाते हैं।
उनको व्रात्यस्तोमादि प्रायश्चित्त करके फिर यज्ञोपवीत कराने का अधिकार होता है और उससे ज्यादा यानी चार पांच पीढ़ी तक यज्ञोपवीत (जनेऊ संस्कार) न हो तो वे शूद्र के समान ही कहे जाते हैं।
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