(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः
श्लोक 78-85 का हिन्दी अनुवाद
जीव जब इन्द्रियजनित भोगों का चिन्तन करते हुए बार-बार उन्हीं के
लिये कर्म करता है, तब उन कर्मों के होते रहने से
अविद्यावश वह देहादि के कर्मों में बँध जाता है। अतएव उस कर्मबन्धन से छुटकारा
पाने के लिये सम्पूर्ण विश्व को भगवद्रूप देखते हुए सब प्रकार श्रीहरि का भजन करो। उन्हीं से इस विश्व
की उत्पत्ति और स्थिति होती है तथा उन्हीं में लय होता है।
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! भक्त श्रेष्ठ श्रीनारद जी ने राजा प्राचीनबर्हि को जीव और ईश्वर के
स्वरूप का दिग्दर्शन कराया। फिर वे उनसे विदा लेकर सिद्धलोक को चले गये। तब
राजर्षि प्राचीनबर्हि ही प्रजापालन का भार अपने पुत्रों को सौंपकर तपस्या करने के
लिये कपिलाश्रम को चले गये। वहाँ उन वीरवर ने समस्त विषयों की आसक्ति छोड़ एकाग्र
मन से भक्तिपूर्वक श्रीहरि के चरणकमलों का चिन्तन करते हुए सारूप्यपद प्राप्त
किया।
निष्पाप विदुर जी! देवर्षि नारद के परोक्ष रूप से कहे
हुए इस आत्मज्ञान को जो पुरुष सुनेगा या सुनायेगा, वह
शीघ्र ही लिंगदेह के बन्धन से छूट जायेगा। देवर्षि
नारद के मुख के निकला हुआ यह आत्मज्ञान भगवान्
मुकुन्द के यश से सम्बन्ध होने के कारण त्रिलोकी को पवित्र करने वाला, अन्तःकरण का शोधक तथा परमात्मपद को प्रकाशित करने वाला है। जो पुरुष
इसकी कथा सुनेगा, वह समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेगा और
फिर उसे इस संसार-चक्र में नहीं भटकना पड़ेगा।
विदुर जी! गृहस्थाश्रमी पुरंजन के
रूपक से परोक्ष रूप में कहा हुआ यह अद्भुत आत्मज्ञान मैंने गुरु जी की कृपा से
प्राप्त किया था। इसका तात्पर्य समझ लेने से बुद्धियुक्त जीव का देहाभिमान निवृत्त
हो जाता है तथा उसका ‘परलोक में जीव किस
प्रकार कर्मों का फल भोगता है’ यह संशय भी मिट जाता है।
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