श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 55-65 का हिन्दी अनुवाद

 (लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)

श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः
श्लोक 55-65 का हिन्दी अनुवाद

 इस प्रकार अपने को मृग की-सी स्थिति में देखकर तुम अपने चित्त को हृदय के भीतर निरुद्ध करो और नदी की भाँति प्रवाहित होने वाली श्रवणेन्द्रिय की बाह्य वृत्ति को चित्त में स्थापित करो। (अन्तर्मुखी करो) जहाँ कामी पुरुषों की चर्चा होती रहती है, उस गृहस्थाश्रम को छोड़कर परमहंसों के आश्रय श्रीहरि को प्रसन्न करो और क्रमशः सभी विषयों से विरत हो जाओ।

राजा प्राचीनबर्हि ने कहा- भगवन्! आपने कृपा करके मुझे जो उपदेश दिया, उसे मैंने सुना और उस पर विशेषरूप से विचार भी किया। मुझे कर्म का उपदेश देने वाले इन आचार्यों को निश्चय ही इसका ज्ञान नहीं है; यदि ये इस विषय को जानते तो मुझे इसका उपदेश क्यों न करते। विप्रवर! मेरे उपाध्यायों ने आत्मतत्त्व के विषय में मेरे हृदय में जो महान् संशय खड़ा कर दिया था, उसे आपने पूरी तरह से काट दिया। इस विषय में इन्द्रियों की गति न होने के कारण मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को भी मोह हो जाता है। वेदवादियों का कथन जगह-जगह सुना जाता है कि पुरुष इस लोक में जिसके द्वारा कर्म करता है, उस स्थूल शरीर को यहीं छोड़कर परलोक में कर्मों से ही बने हुए दूसरी देह से उनका फल भोगता है। किन्तु यह बात कैसे हो सकती है?’ (क्योंकि उन कर्मों का कर्ता स्थूल शरीर तो यहीं नष्ट हो जाता है।) इसके सिवा जो-जो कर्म यहाँ किये जाते हैं, वे तो दूसरे ही क्षण में अदृश्य हो जाते हैं; वे परलोक में फल देने के लिये किस प्रकार पुनः प्रकट हो सकते हैं?

श्रीनारद जी ने कहा- राजन्! (स्थूल शरीर तो लिंग शरीर के अधीन है, अतः कर्मों का उत्तरदायित्व उसी पर है) जिस मनःप्रधान लिंग की सहायता से मनुष्य कर्म करता है, वह तो मरने के बाद भी उसके साथ रहता ही है, अतः वह परलोक में अपरोक्ष रूप से स्वयं उसी के द्वारा उनका फल भोगता है। स्वप्नावस्था में मनुष्य इस जीवित शरीर का अभिमान तो छोड़ देता है, किन्तु इसी के समान अथवा इससे भिन्न प्रकार के पशु-पक्षी आदि शरीर से वह मन में संस्काररूप से स्थित कर्मों का फल भोगता रहता है। इस मन के द्वारा जीव जिन स्त्री-पुत्रादि को ये मेरे हैंऔर देहादि को यह मैं हूँऐसा कहकर मानता है, उनके किये हुए पाप-पुण्यादिरूप कर्मों को भी यह अपने ऊपर ले लेता है और उनके कारण इसे व्यर्थ ही फिर जन्म लेना पड़ता है। जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों की चेष्टाओं से उनके प्रेरक चित्त का अनुमान किया जाता है, उसी प्रकार चित्त की भिन्न-भिन्न प्रकार की वृत्तियों से पूर्वजन्म के कर्मो का भी अनुमान होता है। (अतः कर्म अदृष्टरूप से फल देने के लिये कालान्तर में मौजूद रहते हैं) कभी-कभी देखा जाता है कि जिस वस्तु का इस शरीर से कभी अनुभव नहीं किया-जिसे न कभी देखा, न सुना ही-उसका स्वप्न में, वह जैसी होती है, वैसा ही अनुभव हो जाता है।

राजन्! तुम निश्चय मानो कि लिंग देह के अभिमानी जीव को उसका अनुभव पूर्वजन्म में हो चुका है; उसकी मन में वासना भी नहीं हो सकती।




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