(लगातार-सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः
श्लोक
45-54 का
हिन्दी अनुवाद
वेद भी अत्यन्त विस्तृत हैं,
उसका पार पाना हँसी-खेल नहीं है। अनेकों महानुभाव उसकी आलोचना
करके मन्त्रों में बताये हुए वज्र-हस्तत्त्वादि गुणों से युक्त इन्द्रादि देवताओं के रूप में, भिन्न-भिन्न कर्मों के द्वरा, यद्यपि उस
परमात्मा का ही यजन करते हैं तथापि उसके स्वरूप को वे भी नहीं जानते। हृदय में
बार-बार चिन्तन किये जाने पर भगवान् जिस समय जीव पर कृपा करते हैं, उसी समय वह लौकिक व्यवहार एवं वैदिक कर्म-मार्ग की बद्धमूल आस्था से
छुट्टी पा जाता है।
बर्हिष्मन्! तुम इन कर्मों में
परमार्थबुद्धि मत करो। ये सुनने में ही प्रिय जान पड़ते हैं,
परमार्थ का तो स्पर्श भी नहीं करते। ये जो परमार्थवत् दीख पड़ते
हैं, इसमें केवल अज्ञान ही कारण है। जो मलिनमति कर्मवादी
लोग वेदको कर्मपरक बताते हैं, वे वास्तव में उसका मर्म नहीं जानते। इसका कारण यही है कि वे अपने
स्वरूपभूत लोक (आत्मतत्त्व) को नहीं जानते, जहाँ साक्षात् श्रीजनार्दन भगवान् विराजमान हैं,
पूर्व की ओर अग्रभाग वाले कुशाओं से सम्पूर्ण भूमण्डल को
आच्छादित करके अनेकों पशुओं का वध करने से तुम बड़े कर्माभिमानी और उद्धत हो गये
हो; किन्तु वास्तव में तुम्हें कर्म या उपासना-किसी के भी
रहस्य का पता नहीं है। वास्तव में कर्म तो वही है, जिससे
श्रीहरि को प्रसन्न किया जा सके और विद्या भी वही है, जिससे
भगवान् में चित्त लगे।
श्रीहरि सम्पूर्ण देहधारियों में
आत्मा, नियामक और स्वतन्त्र कारण हैं; अतः उनके चरणतल ही मनुष्यों के एकमात्र आश्रय हैं और उन्हीं से संसार
में सबका कल्याण हो सकता है। 'जिससे किसी को अणुमात्र भी
भय नहीं होता, वही उसका प्रियतम आत्मा है’ ऐसा जो पुरुष जानता है, वही ज्ञानी है और जो
ज्ञानी है, वही गुरु एवं साक्षात् श्रीहरि है।
श्रीनारद जी कहते हैं- पुरुषश्रेष्ठ! यहाँ तक जो कुछ कहा गया है, उससे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर हो गया। अब मैं एक भलीभाँति निश्चित
किया हुआ गुप्त साधन बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो। ‘पुष्पवाटिका में अपनी हरिनी के साथ विहार करता हुआ एक हरिन मस्त घूम
रहा है, वह दूब आदि छोटे-छोटे अंकुरों को चर रहा है। उसके
कान भौंरों के मधुर गुंजार में लग रहे हैं। उसके सामने ही दूसरे जीवों को मारकर
अपना पेट पालने वाले भेड़िये ताक लगाये खड़े हैं और पीछे से शिकारी व्याध ने
बींधने के लिये उस पर बाण छोड़ दिया है। परन्तु हरिन इतना बेसुध है कि उसे इसका कुछ
पता नहीं है।’ एक बार इस हरिन की दशा पर विचार करो।
राजन्! इस रूपक का आशय सुनो। यह
मृतप्राय हरिन तुम्हीं हो, तुम अपनी दशा पर
विचार करो। पुष्पों की तरह ये स्त्रियाँ केवल देखने में सुन्दर हैं, इन स्त्रियों के रहने का घर ही पुष्पवाटिका है। इसमें रहकर तुम पुष्पों
के मधु और गन्ध के समान क्षुद्र सकाम कर्मों के फलरूप, जीभ
और जननेद्रिय को प्रिय लगने वाले भोजन तथा स्त्रीसंग आदि तुच्छ भोगो को ढूँढ रहे
हो। स्त्रियों से घिरे रहते हो और अपने मन को तुमने उन्हीं में फँसा रखा है।
स्त्री-पुत्रों का मधुर भाषण ही भौरों का मधुर गुंजार है, तुम्हारे कान उसी में अत्यन्त आसक्त हो रहे हैं। सामने ही भेड़ियों के
झुंड के समान काल के अंश दिन और रात तुम्हारी आयु को हर रहे हैं, परन्तु तुम उनकी कुछ भी परवा न कर गृहस्थी के सुखों में मस्त हो रहे
हो। तुम्हारे पीछे गुप-चुप लगा हुआ शिकारी काल अपने छिपे हुए बाण से तुम्हारे हृदय
को दूर से ही बींध डालना चाहता है।
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