(लगातार-सम्पूर्ण
श्रीमद्भागवत पुराण)
श्रीमद्भागवत महापुराण:
चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः
श्लोक 30-44 का हिन्दी अनुवाद.
वह कभी तो सात्त्विक कर्मों के द्वारा प्रकाशबहुल स्वर्गादि लोक
प्राप्त करता है, कभी राजसी कर्मों के द्वारा दुःखमय
रजोगुणी लोकों में जाता है-और कभी तमोगुणी कर्मों के द्वारा शोकबहुल तमोमयी
योनियों में जन्म लेता है। इस प्रकार अपने कर्म और गुणों के अनुसार देवयोनि,
मनुष्ययोनि अथवा पशु-पक्षीयोनि में जन्म लेकर वह अज्ञानान्ध जीव
कभी पुरुष, कभी स्त्री और कभी नपुंसक होता है। जिस प्रकार
बेचारा भूख से व्याकुल कुत्ता दर-दर भटकता हुआ आपने प्रारब्धानुसार कहीं डंडा खाता
है और कहीं भात खाता है, उसी प्रकार यह जीव चित्त में
नाना प्रकार की वासनाओं को लेकर ऊँचे-नीचे मार्ग से ऊपर, नीचे
अथवा मध्य के लोकों में भटकता हुआ अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगता रहता है।
आधिदैविक,
आधिभौतिक और आध्यात्मिक- इन तीन प्रकार के दुःखों में से किसी भी
एक से जीव का सर्वथा छुटकारा नहीं हो सकता। यदि कभी वैसा जान पड़ता है तो वह केवल
तात्कालिक निवृत्ति ही है। वह ऐसी ही है, जैसे कोई सिर पर
भारी बोझा ढोकर ले जाने वाला पुरुष उसे कंधे पर रख ले। इसी तरह सभी प्रतिक्रिया
(दुःखनिवृत्ति) जाननी चाहिये-यदि किसी उपाय से मनुष्य एक प्रकार के दुःख से छुट्टी
पाता है, तो दूसरा दुःख आकर उसके सिर पर सवार हो जाता है।
शुद्धहृदय नरेन्द्र! जिस प्रकार
स्वप्न में होने वाला स्वप्नान्तर उस स्वप्न से सर्वथा छूटने का उपाय नहीं है,
उसी प्रकार कर्मफल-भोग से सर्वथा छूटने का उपाय केवल कर्म नहीं
हो सकता; क्योंकि कर्म और कर्मफल भोग दोनों ही
अविद्यायुक्त होते हैं। जिस प्रकार स्वप्नावस्था में अपने मनोमय लिंग शरीर से
विचरने वाले प्राणी को स्वप्न के पदार्थ न होने पर भी भासते हैं, उसी प्रकार ये दृश्य पदार्थ वस्तुतः न होने पर भी, जब तक अज्ञान-निद्रा नहीं टूटती, बने ही रहते
हैं और जीव को जन्म-मरणरूप संसार से मुक्ति नहीं मिलती। (अतः इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति
का उपाय एकमात्र आत्मज्ञान ही है)
राजन्! जिस अविद्या के कारण
परमार्थरूप आत्मा को यह जन्म-मरणरूप अनर्थ परम्परा प्राप्त हुई है,
उसकी निवृत्ति गुरुस्वरूप श्रीहरि में सुदृढ़ भक्ति होने पर हो सकती है। भगवान्
वासुदेव में एकाग्रतापूर्वक सम्यक् प्रकार से किया
हुआ भक्तिभाव ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव कर देता है। राजर्षे! यह भक्तिभाव
भगवान् की कथाओं के आश्रित रहता है। इसलिये जो श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रतिदिन
सुनता या पढ़ता है, उसे बहुत शीघ्र इसकी प्राप्ति हो जाती
है। राजन्! जहाँ भाग्वाद्गुणों को कहने और सुनने में तत्पर विशुद्धचित्त भक्तजन
रहते हैं, उस साधु-समाज में सब ओर महापुरुषों के मुख से
निकले हुए श्रीमधुसूदन भगवान् के चरित्र शुद्ध अमृत की अनेकों नदियाँ बहती रहती
हैं। जो लोग अतृप्त-चित्त से श्रवण में तत्पर अपने कर्णकुहरों द्वारा उस अमृत का
छककर पान करते हैं, उन्हें भूख-प्यास, भय, शोक और मोह आदि कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा
सकते।
हाय! स्वभावतः प्राप्त होने वाले इन
क्षुधा-पिपसादि विघ्नों से सदा घिरा हुआ जीव-समुदाय श्रीहरि के कथामृत-सिन्धु से
प्रेम नहीं करता। साक्षात् प्रजापतियों के पति ब्रह्मा जी, भगवान् शंकर, स्वयाम्भुव मनु, दक्षादि प्रजापतिगण, सनकादि नैष्ठिक ब्रह्मचारी,
मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ और मैं- ये जितने ब्रह्मवादी मुनिगण हैं, समस्त
वाङ्मय एक अधिपति होने पर भी तप, उपासना और समाधि के
द्वारा ढूँढ-ढूँढकर हार गये, फिर भी उस सर्वसाक्षी
परमेश्वर को आज तक न देख सके।
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