जा बन जा सन्यासी.


            एक युवक बड़े उग्र स्वभाव का था। वह बात-बात पर आग-बबूला हो जाता और संन्यासी बनने की धमकी देता था। एक दिन उसके परिवार वालों ने उसके व्यवहार से तंग आकर उसे संन्यास लेने की छूट दे दी। वह घर से निकल कर, एक संत के आश्रम की ओर चल दिया और संत को संन्यास लेने की, अपनी इच्छा बताई। संत उसके बारे में सब कुछ सुन चुके थे। वह बोले, 'संन्यास की दीक्षा तुम्हें कल दी जाएगी। उससे पहले तुम्हें जो करने को कहा जाए, वह तुम्हें शांतिपर्वूक करना होगा।' युवक मान गया।

            संत ने उसे नदी में स्नान करने को कहा। सर्दी के मौसम में नदी में पैर डालते ही युवक की जान निकल गई। वह जैसे-तैसे नहाकर लौटा तो उसे आश्रम के संचालक ने आश्रम की सफाई करने का आदेश दिया। पूरे आश्रम की सफाई करते-करते, उसके हाथ दर्द करने लगे, तो संचालक ने उससे आश्रम के लिए सब्जी काटने को कहा। सब्जी काटते-काटते उसका हाथ कट गया। वह चिल्ला उठा। दोपहर में उसे नमक मिले करेले खाने को मिले। भूखा-प्यासा वह करेलों पर झपटा। जैसे ही उसने एक करेला मुंह में डाला तो कड़वाहट से उसका मुंह भर गया और उसने उसे थूक दिया। वह गुस्से से संत के पास जाकर बोला, 'क्या संन्यास लेना इसी को कहते हैं?'


            संत मुस्करा कर युवक से बोले,'संन्यास' में प्रवेश करने वालों को पग-पग पर, मन को मारना पड़ता है। परिस्थितियों से तालमेल बिठाना, संयम बरतना और अनुशासन का पालन करना पड़ता है। इसी अभ्यास के लिए संन्यास लिया जाता है। गेरुए वस्त्रों को धारण कर कोई भी संन्यासी कहला सकता है किंतु स्वभाव से संन्यासी होना आसान नहीं है।' यह सुनकर युवक लज्जित हो गया और बोला,'यदि क्रोध किए बगैर शांति पूर्वक रहना ही संन्यास है तो यह काम मैं घर में रहकर ही कर सकता हूं।' इसके बाद वह घर लौट आया। उसका स्वभाव पूरी तरह बदल गया।

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