तत्व-ज्ञान का सहज बोध.
दो अक्षर हैं- “मैं हूँ”| इसमें “मैं” प्रकृति का अंश हैं और “हूँ” परमात्मा का अंश हैं| “मैं” जड हैं और “हूँ” चेतन हैं| “मैं” आधेय हैं और “हूँ” आधार हैं| “मैं” प्रकाश्य हैं और “हूँ” प्रकाशक हैं| “मैं” परिवर्तनशील हैं और “हूँ” अपरिवर्तनशील हैं| “ मैं” अनित्य हैं और “हूँ” नित्य हैं| “मैं” विकारी हैं और “हूँ” निर्विकार हैं| “मैं” और “हूँ” को मिला लिया-यही चिज्ज्डग्रंथि (जड-चेतन की ग्रंथि) हैं, यही बंधन हैं, यही अज्ञान हैं| “मैं” और “हूँ” को अलग अलग अनुभव करना ही मुक्ति हैं, तत्वबोध हैं| यहाँ यह जान लेना आवश्यक हैं कि “मैं” को साथ मिलाने से ही “हूँ” कहा जाता हैं| अगर “मैं” को साथ न मिलाये तो “हूँ” नहीं रहेगा. वरन “हैं” ही रहेगा| वह “हैं” ही अपना स्वरूप हैं|
एक ही व्यक्ति अपने बाप के सामने कहता हैं कि ‘मैं बेटा हूँ’. बेटे के सामने कहता हैं कि ‘मैं बाप हूँ’. दादा के सामने कहता हैं कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता हैं कि ‘मैं दादा हूँ ‘, बहन के सामने कहता हैं कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नी के सामने कहता हैं कि ‘मैं पति हूँ’ भांजे के सामने कहता हैं कि ‘मैं मामा हूँ’, मामा के सामने कहता हैं कि ‘मैं भांजा हूँ’ आदि-आदि| तात्पर्य हैं कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भांजा आदि तो अलग अलग हैं, पर “हूँ” सब में एक हैं| ‘मैं’ तो बदला हैं पर ‘हूँ’ नहीं बदला| वह ‘मैं’ बाप के सामने बेटा हो जाता हैं, बेटा के सामने बाप हो जाता हैं अर्थात वह जिसके सामने जाता हैं, वैसा ही हो जाता हैं| अगर उससे पूछे कि ‘तू कौन हैं’ तो उसको खुद का पता नहीं| यदि ‘मैं की खोज करें तो ‘मैं मिलेगा ही नहीं, अपितु सत्ता मिलेगी| कारण कि वास्तव में सत्ता ‘हैं’ की ही हैं, “मैं” की सत्ता हैं ही नहीं|
बेटे की अपेक्षा बाप हैं, बाप की अपेक्षा बेटा हैं-इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षा से (सापेक्ष) हैं; अत: ये स्वयं के नाम नहीं हैं| स्वयं का नाम तो निरपेक्ष “हैं” हैं| वह “हैं” – “मैं” को जानने वाला हैं| “मैं” जानने वाला नहीं हैं और जो जाननेवाला हैं, वह “मैं” नहीं हैं| “मैं” ज्ञेय (जानने में आने वाला) हैं और “हैं” ज्ञाता (जानने वाला) हैं| “ मैं” से सम्बन्ध माने या न माने, “मैं की सत्ता नहीं हैं| सत्ता “हैं” की हैं| परिवर्तन “मैं: में होता हैं, “हैं” में नहीं| “हूँ” भी वास्तव में “हैं” का ही अंश हैं| “मैं” पनको पकड़ने से ही वह अंश हैं| अगर मैं-पनको न पकडे तो वह (हूँ) नहीं हैं, बल्कि ‘हैं’ (सत्ता मात्र हैं) ‘मैं’ अहंता हैं और मेरा बाप, मेरा बेटा आदि ममता हैं| अहंता-ममता से रहित होते ही मुक्ति हैं|
निर्भयो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति||
{गीता २/७१)
यहीं ‘ब्राह्मी स्तिथि’ हैं| इसी ब्राह्मी स्तिथि को प्राप्त होने पर अर्थात “हैं” में स्तिथि का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात शरीर को मैं-मेरा कहने वाला कोई नहीं रहता|
मनुष्य हैं, पशु हैं, पक्षी हैं, ईट हैं, चूना हैं. पत्थर हैं-इस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क हैं, पर “हैं” में कोई फर्क नहीं| ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ. मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ-इस प्रकार मनुष्य आदि योनियां तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला हैं| अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक हैं| बालक, जवान और बृद्ध-ये तीनो अलग अलग हैं, पर इन तीनो में सत्ता एक हैं| कुवारी, विवाहिता और विधवा-ये तीनों अलग अलग हैं, पर इन तीनो में सत्ता एक हैं| जागृत, स्वप्न, सुसुप्ति, मूर्च्छा और समाधी-ये पांचों अवस्थाये अलग अलग हैं पर तीनों में सत्ता एक हैं| अवस्थाये बदलती हैं पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता| ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध-इन पांचों वृत्तिओं में फर्क पड़ता हैं, पर इनको जानने वाले में कोई फर्क नहीं पड़ता| यदि जाननेवाला भी बदल जाये तो इन पांचों की गणना कौन करेगा| एक मार्मिक बात हैं कि सबके परिवर्तन का ज्ञान होता हैं, पर स्वयं के परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता| सबका इदंता से भान होता हैं पर अपने स्वरूप का इदंता से भान कभी किसी को नहीं होता| कहने का अर्थ यह हैं कि “हैं” (सत्तामात्र) में हमारी स्तिथि स्वतः हैं, करनी नहीं हैं| भूल यह होती हैं कि हम “संसार हैं”-इस प्रकार “नहीं” में “हैं” का आरोप कर लेते हैं| “नही” में “हैं” का आरोप करने से ही “नहीं” (संसार) की सत्ता दिखती हैं और “हैं” की तरफ दृष्टि नहीं जाती| वास्तव में “हैं में संसार”-इस प्रकार “नहीं” में “हैं” का अनुभव करना चाहिये| “नहीं” में “हैं का अनुभव करने से “नहीं” नहीं रहेगा और “हैं” रह जायेगा|
भगवान कहते हैं....
नसतो विद्यते भावो नाभावों विद्यते सत:|
(गीता २/१६)
“असत की सत्ता विधमान नहीं हैं अर्थात असत का भाव ही विधमान हैं और सत का भाव विधमान नहीं हैं अर्थात सत का भाव ही विधमान हैं|”
एक ही देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्तिथि आदि में अपनी जो परिछिन्न सत्ता दिखती हैं, वह अहं (व्यक्तित्व, एकदेशियता) को लेकर ही दिखती हैं| जब तक अहं रहता हैं, तभी तक मनुष्य अपने को एक देश, काल आदि में देखता हैं| अहं के मिटने पर एक देश, काल आदि में परिछिन्न सत्ता नहीं रहती, वरन अपरिछिन्न सत्ता मात्र रहती हैं|
वास्तव में अहं हैं ही नहीं, केवल उसकी मान्यता हैं| सांसारिक पदार्थो की जैसी सता प्रतीत होती हैं, वैसी सत्ता भी अहं की नहीं हैं| सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति विनाश वाले हैं. पर अहं उत्पत्ति विनाश वाला नहीं हैं| इसलिए तत्वबोध होने पर शरीरादी पदार्थ तो रहते हैं, पर अहं मिट जाता हैं| अत: तत्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता. सिर्फ ज्ञान मात्र रहता हैं| इसलिए आज तक कोई ज्ञानी हुआ ही नहीं, ज्ञानी होगा भी नहीं और ज्ञानी होना संभव ही नहीं हैं| अहं ज्ञानी में होता हैं, ज्ञान में नहीं| इसीलिये यह कहा गया हैं कि ज्ञानी नहीं हैं, ज्ञान मात्र हैं, सत्ता मात्र हैं| उस ज्ञान का कोई ज्ञाता नहीं हैं|, कोई धर्मीं नहीं हैं| कोई मालिक नहीं हैं| कारण कि वह ज्ञान स्वयं प्रकाश हैं| अत: स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता हैं| वास्तव में ज्ञान होता नहीं हैं, सिर्फ अज्ञान मिट जाता हैं| अज्ञान के मिट जाने को ही तत्वज्ञान का होना कह दिया जाता हैं|
एक प्रकाश्य (संसार) हैं और एक प्रकाशक (परमात्मा) हैं अथवा एक ‘यह’ हैं और एक उसका आधार, प्रकाशक, अधिष्ठान ‘सत्ता’ हैं| अहं न तो प्रकाश्य (‘यह’) में हैं और न प्रकाशक (सत्ता) में ही हैं, केवल माना हुआ हैं| जिसमें संसार (‘यह’) की इच्छा भी हैं| और परमात्मा (सत्ता) की इच्छा भी हैं, उसका नाम अहं हैं और वहीँ ‘जीव’ हैं| तात्पर्य हैं कि जड के सम्बन्ध से संसार की इच्छा अर्थात ‘भोगेच्छा’ हैं और चेतन के सम्बन्ध से परमात्मा की इच्छा अर्थात ‘जिज्ञासा’ हैं| अत: अहं (जड-चेतन की ग्रंथि) में जड अंश की प्रधानता से हम संसार को चाहते हैं और चेतन-अंश की प्रधानता से हम परमात्मा को चाहते हैं| माने हुये अहं का नाश होने पर भोगेच्छा मिट जाती हैं| और जिज्ञासा पूरी हो जाती हैं| तत्व मात्र ही रह जाता हैं| वास्तव में परमात्मा की इच्छा भी संसार की इच्छा के कारण ही हैं| संसार की इच्छा न हो तो तत्वज्ञान स्वत: सिद्ध हैं|
(उपर जो इच्छा शब्द आया हैं उसे भी इस प्रकार से समझना चाहिये| “मैं सदा जीता रहूँ, कभी मरू नहीं-यह सत् की इच्छा हैं; में सब कुछ जान लूं, कभी अज्ञानी न रहूँ-यह चित्त की इच्छा हैं और सदा सुखी रहूँ, कभी दुखी न होऊं-यह आनन्द की इच्छा हैं| इस प्रकार सत्-चित्-आनन्द परमात्मा की इच्छा जीवन मात्र में रहती हैं| परन्तु जड़ से संबन्ध मानने के कारण उससे भूल यह होती हैं कि वह इन इच्छाओं को नाशवान संसार से पूरी करना चाहता हैं; जैसे-वह शरीर को लेकर जीना चाहता हैं, बुद्धि को लेकर जानकार बनना चाहता हैं और इन्द्रिओं को लेकर सुखी होना चाहता हैं|)
साधन की ऊँची अवस्था में ‘मेरे को तत्व ज्ञान हो जाये, मैं मुक्त हो जाऊ’-यह इच्छा भी बाधक होती हैं| जब तक अंत:करण में असत की सत्ता दृढ रहती हैं, तब तक तो जिज्ञासा भी तत्व-ज्ञान में बाधक होती हैं| जैसे प्यास जल से दूरी सिद्ध करती हैं, ऐसे ही जिज्ञासा तत्व से दूरी सिद्ध करती हैं| जबकि तत्व वास्तव में दूर नहीं हैं, वरन नित्य प्राप्त हैं| दूसरी बात, तत्व ज्ञान की इच्छा से व्यक्तित्व (अहं) दृढ होता हैं जो तत्व ज्ञान में बाधक हैं| वास्तव में तत्व ज्ञान मुक्ति स्वत:सिद्ध हैं| तत्व ज्ञान की इच्छा करके हम अज्ञान को सत्ता देते हैं, अपने में अज्ञान की मान्यता करते हैं| जबकि अज्ञान की सत्ता हैं, ही नहीं| इसलिए तत्व ज्ञान होने पर मोह नहीं होता-यञ्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम् (गीता ४/३५); क्योकि वास्तव में मोह हैं ही नहीं| मिटता वही हैं. जो होता हैं जैसे मिलता भी वही हैं, जो होता हैं|
साधक को स्वत: स्वाभाविक एकमात्र ‘हैं’ (सत्ता) का अनुभव हो जाय-इसी का नाम जीवन्मुक्ति हैं, तत्वबोध हैं| अंत में सबका निषेध होने पर एक ‘हैं; ही शेष रह जाता हैं| वह ‘हैं’ अपेक्षा वाले ‘नहीं और ‘हैं’-, दोनों से रहित हैं अर्थात उस सत्ता में ‘नहीं’ भी हैं और ‘हैं’ भी नहीं हैं| वह सत्ता ज्ञान स्वरूप हैं, चिन्मय मात्र हैं| वह सत्ता नित्य जाग्रत रहती हैं| सुषुप्ति में अहं साहित सब करण लींन हो जाते हैं, पर सत्ता लींन नहीं होती-यह सत्ता की नित्य जागृती हैं| वह सत्ता कभी पुरानी नहीं होती, नित्य नयी बनी रहती हैं; क्योकि उसमें काल नहीं है| उस सत्ता मात्र का ज्ञान होना ही तत्व-ज्ञान कहलाता हैं और सत्ता में कुछ भी मिलाना अज्ञान हैं|
........
(स्त्रोत्र-गीताप्रेस की पुस्तक से)
पुस्तक का नाम विस्मृत हैं|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें