बात उस समय की है जब रामानुजाचार्य, आश्रम में रह कर विद्याध्ययन कर रहे थे। वह अपने गुरु के सबसे प्रिय शिष्यों में थे। इसका कारण यह था कि वह कभी गुरु-आज्ञा, की अवहेलना नहीं करते थे। एक दिन रामानुजाचार्य को, उनके गुरु ने अष्टाक्षर नारायण मंत्र का ज्ञान देते हुए कहा कि यह जिसके कानों में पड़ता है, वह पाप मुक्त होकर सीधे वैकुंठ जाता है। गुरु ने यह भी कहा कि यह गुप्त मंत्र है, जिसे किसी अयोग्य को कभी भी नहीं सुनाना। उन्होंने मंत्र को गुप्त रखने का आदेश अनेक बार दुहराया।
रामानुजाचार्य ने उस समय बात मान तो ली लेकिन उनके मन में इसे लेकर सवाल उठने लगा था। उनके भीतर यह मंथन शुरू हो गया कि क्यों नहीं मंत्र समस्त प्राणियों को सुनाया जाए ताकि वे भी पापमुक्त हो सकें। आखिर एक ही व्यक्ति क्यों पापमुक्त हो। लेकिन यह गुरु की आज्ञा का उल्लंघन था। रात हो गई लेकिन रामानुजाचार्य का द्वंद जारी रहा। आखिर रात के तीसरे पहर, वे आश्रम की छत पर चढ़ कर उस मंत्र के बोल चिल्लाने लगे। सारे लोग जाग गए।
गुरु ने डांटते हुए पूछा, 'यह क्या कर रहा है?'
रामानुजाचार्य बोले, 'गुरुदेव मैं आपकी आज्ञा भंग कर महापापी भले हो जाऊं, लेकिन मुझे खुशी है कि आस-पास के सारे प्राणी यह मंत्र सुन वैकुंठ जाएंगे।'
गुरु ने उन्हें गले लगा लिया और बोले 'तेरे मन में विश्व कल्याण की भावना है इसलिए तू आज्ञा भंग करके भी मेरा सच्चा शिष्य है। तेरे माध्यम से मानवता के कल्याण का मेरा स्वप्न पूरा होगा।'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें