प्रेमोन्माद की आसक्ति.



जहाँ आदर्श न हो, वहाँ प्रेम का अस्तित्व रह ही नहीं सकता। व्यक्तिगत मोह किसी के रंग, रूप, व्यवहार, उपयोग एवं आकर्षण के आधार पर पनपता है। जो रुचिकर लगा, उसी के प्रति आकर्षण बढ़ गया। जिसकी समीपता में सुखद कल्पना कर ली गयी, उसी के पीछे मन चलने लगा। यह आसक्ति किसी को देखने मात्र से पनप सकती है और उसके घनिष्ठ सान्निध्य की आतुरता उन्माद बनकर कुछ भी कर गुजर सकती है। प्रेम के नाम पर ऐसी ही दुर्घटनाएँ आये दिन होती रहती है। इनका परिणाम वैसा ही होता है, जैसा नशा उतरने पर पैसा, समय और खुमारी गँवाकर असहाय, अशक्त बने हुए शराबी का। इस प्रेमोन्माद में कभी किसी को शान्ति दायक परिणाम हाथ नहीं लगा है। यह जुआ खेलने वालों को सदा हार ही हाथ लगती रही है।

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