कल्याण के तीन सुगम मार्ग.
विवेक की जागृति किसी क्रिया से नहीं होती, क्रिया रहित होने से होती है। विवेक को महत्त्व देने से विवेक ही तत्त्व-ज्ञान में परिणत हो जाता है। तात्पर्य है कि तत्त्व-ज्ञान किसी क्रिया या पदार्थ के द्वारा नहीं होता, अपने ही द्वारा होता है। जिसकी प्राप्ति अपने द्वारा होती है, उसके लिये किसी अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती। अभ्यास से तो उलटे वह दूर होता है! मनुष्य जिन करणों (मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ)‒से संसार को देखता है, उनसे अपने-आपको (करण-रहित सत्ता-मात्र स्वरूप को) नहीं देख सकता‒‘यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति’ (गीता ६/२०)। तात्पर्य है कि अपने-आपको किसी करण के द्वारा नहीं देखा जा सकता, करणों के त्याग से ही देखा जा सकता है।
जब तक साधक में अपने लिये कुछ भी करने का भाव रहता है, तब तक उसका सम्बन्ध कर्म-सामग्री के साथ अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि के साथ बना रहता है। जब तक शरीर के साथ सम्बन्ध रहता है, तब तक मनुष्य में न तो निःस्वार्थभाव आता है और न स्वाधीनता आती है अर्थात् वह न तो कर्मयोग का अधिकारी होता है, न ज्ञानयोग का। जो मनुष्य स्वार्थ भाव और पराधीनता से रहित नहीं हो सका, वह भगवान् का प्रेमी भी कैसे हो सकता है? इसलिये ‘क्रिया’ के आश्रय का त्याग करके विश्राम (कुछ न करने)- को अपनाना और ‘पदार्थ’ के आश्रय का त्याग करके स्वाश्रय अथवा भगवदाश्रय को अपनाना प्रत्येक साधक के लिये बहुत आवश्यक है।
जब साधक निर्मम और निष्काम हो जाता है, तब उसकी अहंता मिट जाती है। अहंता मिटने पर फिर उसके लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता‒‘निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २/७१)। जब तक साधक अपने लिये कुछ भी करता है, तब तक उसका सम्बन्ध क्रिया और पदार्थ से बना रहता है। जब तक क्रिया और पदार्थ से सम्बन्ध है, तब तक पराधीनता है। क्रिया और पदार्थ संसार की सेवा के लिये तो उपयोगी हैं, पर अपने लिये इनका त्याग ही उपयोगी है। सेवा और त्याग कृत्रिम नहीं हैं, स्वतः-स्वाभाविक हैं। इसलिये मैं सेवा करता हूँ अथवा मैं त्याग करता हूँ‒ऐसा अभिमान करना भूल है। जब संसार में मेरी कोई वस्तु है ही नहीं तो त्याग क्या हुआ? और जिसकी वस्तु थी, वह उसको दे दी तो सेवा क्या हुई? यह सिद्धान्त है कि जो कभी भी अलग होगा, वह अभी भी अलग है। इसलिये नित्य निवृत्तिकी ही निवृत्ति होती है और नित्य प्राप्त की ही प्राप्ति होती है‒इस सत्य को स्वीकार करना साधक के लिये आवश्यक है।
जप, तप, व्रत, तीर्थ, स्वाध्याय आदि क्रिया साध्य साधनों से कामना का नाश नहीं होता। कारण कि कोई भी क्रिया (अभ्यास) करने के लिये शरीर की सहायता लेनी पड़ती है और शरीर के सम्बन्ध से ही कामनाओं की उत्पत्ति होती है। अतः कामना का नाश किसी क्रिया से नहीं होता, वरन सर्वथा क्रिया रहित होने से तथा विवेक को महत्त्व देने से होता है। क्रियारहित होते ही शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होकर स्वरूप में स्थिति स्वतः होती है। स्वरूप में निर्ममता और निष्कामता स्वतःसिद्ध हैं। अतः शरीर-संसार के सम्बन्ध से होने वाले ममता, कामना आदि दोषों का नाश करने के लिये क्रिया और पदार्थ से सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है।
जब कर्ता निष्काम होता है, तब उसके द्वारा स्वतः कर्तव्य-कर्मका पालन होने लगता है। कर्ता निष्काम हुए बिना कर्तव्य-कर्मका पालन नहीं होता और कर्तव्य-कर्मका पालन हुए बिना प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग नहीं होता। सकाम मनुष्य प्राप्त परिस्थिति के अधीन हो जाता है तथा अप्राप्त परिस्थिति का चिन्तन करता रहता है। परन्तु निष्काम होते ही मनुष्य प्राप्त परिस्थिति की पराधीनता तथा अप्राप्त परिस्थिति के चिन्तन से छूटकर परिस्थति से अतीत तत्त्व को प्राप्त कर लेता है।
कामना की पूर्ति में तो सब मनुष्य पराधीन हैं, पर कामना का त्याग करने में सब-के-सब मनुष्य स्वाधीन और समर्थ हैं। प्रत्येक मनुष्य स्वाधीनता पूर्वक मुक्ति की प्राप्ति कर सकता है। परन्तु जब तक मनुष्य के भीतर कामना रहती है, तब तक वह स्वाधीन नहीं हो सकता। पराधीनता का सर्वथा नाश निष्काम होने पर ही सम्भव है। निष्काम होने पर साधक संसार पर विजय प्राप्त कर लेता है। कारण कि कामना वाले मनुष्य को कइयों के अधीन होना पड़ता है, पर जिसको कुछ नहीं चाहिये, उसको किसी के भी अधीन नहीं होना पड़ता। उसका मूल्य संसार से अधिक हो जाता है। वह तीनों योगों का अधिकारी बन जाता है। इतना ही नहीं, वह भगवत्प्रेम का भी पात्र बन जाता है; क्योंकि कामना वाला मनुष्य किसी से प्रेम नहीं कर सकता।
प्रत्येक साधक के लिये निष्काम होना बहुत आवश्यक है; क्योंकि निष्काम हुए बिना साधक अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, कामना के कारण वह साध्य रूप भगवान् को भी कामना पूर्ति का साधन बना लेता है। तात्पर्य है कि वह कोई भी कामना रख-कर भगवान् का भजन करता है तो उसका साध्य तो वह काम्य पदार्थ होता है और भगवान् उसकी प्राप्ति के साधन होते हैं। जब तक कामना रहती है, तब तक मनुष्य पराधीन रहता है। पराधीन मनुष्य न तो त्याग कर सकता है, न सेवा कर सकता है और न प्रेम ही कर सकता है। वह न तो ज्ञानयोगी बन सकता है, न कर्मयोगी बन सकता है और न भक्तियोगी ही बन सकता है। अतः पराधीनता को मिटाने के लिये निष्काम होना बहुत आवश्यक है।
मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तुओं में ‘मैं’-पन और ‘मेरा’-पन होने से ही कामनाओं की उत्पति होती है। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति आज-तक किसी की नहीं हुई, न होगी और न हो ही सकती है। जिन कामनाओं की पूर्ति होती है, वे भी परिणाम में दुःख ही देती हैं। कारण कि एक कामना की पूर्ति होने पर दूसरी अनेक कामनाएँ पैदा हो जाती हैं, जिससे कामना आपूर्ति का दुःख ज्यों-का-त्यों बना रहता है। मनुष्य समझता है कि कामना की पूर्ति होने पर मैं स्वतन्त्र हो गया, पर वास्तव में वह काम्य पदार्थ के पराधीन हो जाता है परन्तु प्रमाद के कारण वह पराधीनता में भी सुखका अनुभव करता है। मनुष्य को इस पराधीनता से छुड़ाने के लिये भगवान् के मंगलमय विधान से दुःख आता है परन्तु मनुष्य दुःख से दुःखी होकर भगवान् के मंगलमय विधान की भी अवहेलना कर देता है। अगर वह दुःख से दुःखी न होकर दुःख के कारण की खोज करे और सम्पूर्ण दुःखों के कारण ‘कामना’ को मिटा दे तो वह सदाके लिये सुखी हो जायगा।
मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु को अपनी और अपने लिये न मानने से मनुष्य निर्मम हो जाता है। निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली ही वस्तुओं का सदुपयोग सुगमता से होने लगता है कारण कि निर्मम हुए बिना प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग नहीं हो सकता। ममता वाले मनुष्य के द्वारा प्राप्त वस्तुओं का दुरुपयोग ही होता है। भोग और संग्रह करना ही वस्तुओं का दुरुपयोग है और उनको दूसरों की सेवा में लगाना ही उनका सदुपयोग है। प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से समाज में संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोग से समाज में शान्तिकी स्थापना होती है।
संसार का स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ। क्रिया और पदार्थ‒दोनों ही आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं। प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है। मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है। जो मिली है और बिछुड़ जायगी, उसका उपयोग केवल संसार की सेवा में ही हो सकता है। अपने लिये उसका कोई उपयोग नहीं है। कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है। जो वस्तु अपनी नहीं होती, वह अपने लिये भी नहीं होती। अपनी वस्तु वह होती है, जिस पर हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिये वस्तु वह होती है, जिसको पाने के बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहे परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि मिली हुई वस्तुओं पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता। हम अपनी इच्छा के अनुसार उनको प्राप्त नहीं कर सकते, उनको बना नहीं सकते, उनमें परिवर्तन नहीं कर सकते। उनकी प्राप्ति के बाद भी ‘और मिले, और मिले’ यह कामना बनी रहती है अर्थात् अभाव बना रहता है। इस अभाव की कभी पूर्ति नहीं होती इसलिये साधक को चाहिये कि वह इस सत्य को स्वीकार करे कि मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है।
मनुष्य-मात्र को ‘मैं हूँ‒इस रूप में अपनी एक सत्ता का अनुभव होता है। इस सत्ता में अहम् (‘मैं’) मिला हुआ होने से ही ‘हूँ’ के रूप में अपनी एक-देशीय सत्ता अनुभव में आती है। यदि अहम् न रहे तो ‘है’ के रूप में सर्व-देशीय सत्ता ही अनुभव में आयेगी। वह सर्व-देशीय सत्ता ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उस सत्ता में अहम् (जड़ता) नहीं है। जब मनुष्य अहम् को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता (‘है’) को स्वीकार करता है, तब वह मुक्त हो जाता है।
मनुष्य-मात्र के भीतर बीजरूप से एक तो मुक्ति (अखण्ड आनन्द) की माँग रहती है, दूसरी दुःख-निवृति की माँग रहती है और तीसरी परम-प्रेम की माँग रहती है। मुक्ति की माँग (स्वयं की भूख) ज्ञान-योग से, दुःख-निवृत्ति की माँग कर्मयोग से और परम-प्रेम की माँग भक्ति योग से पूरी होती है। अगर साधक में अपने साधन का आग्रह, पक्षपात न हो तो एक माँग की पूर्ति से तीनों माँगें पूर्ण हो जाती हैं।
ज्ञानमार्ग.
जगत्, जीव और परमात्मा इन तीनों के सिवाय अन्य कोई नहीं है। गीता में इन तीनों का विभिन्न नामों से वर्णन हुआ है; जैसे‒परा, अपरा और भगवान्; क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम आदि। इन तीनों में जगत् और जीव‒ये दोनों विचारके विषय होने से‘लौकिक’हैं परन्तु परमात्मा विचार का विषय न होने से ‘अलौकिक’हैं । इन तीनों में जीव को लेकर ज्ञानयोग, जगत् को लेकर कर्मयोग और परमात्मा को लेकर भक्तियोग चलता है, इसलिये ज्ञानयोग तथा कर्मयोग‒ये दोनों ‘लौकिक साधन’ हैं और भक्तियोग ‘अलौकिक साधन’ है। लौकिक साधन से मुक्ति होती है और अलौकिक साधन से परम-प्रेम की प्राप्ति होती है।
मनुष्य मात्र को ‘मैं हूँ’‒इस रूप में अपनी एक सत्ता का अनुभव होता है। इस सत्ता में अहम् (‘मैं’) मिला हुआ होने से ही ‘हूँ’ के रूप में अपनी एकदेशीय सत्ता अनुभव में आती है। यदि अहम् न रहे तो ‘है’ के रूप में सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभव में आयेगी। वह सर्वदेशीय सत्ता ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उस सत्ता में अहम् (जड़ता) नहीं है। जब मनुष्य अहम् को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता (‘है’) को स्वीकार करता है, तब वह मुक्त हो जाता है।
संसार का स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ। क्रिया और पदार्थ‒दोनों ही आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं। प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है। मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है। जो मिली है और बिछुड़ जायगी, उसका उपयोग केवल संसार की सेवा में ही हो सकता है। अपने लिये उसका कोई उपयोग नहीं है। कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है। जो वस्तु अपनी नहीं होती, वह अपने लिये भी नहीं होती। अपनी वस्तु वह होती है, जिस पर हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिये वस्तु वह होती है, जिसको पाने के बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहे। परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि मिली हुई वस्तुओं पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता। हम अपनी इच्छा के अनुसार उनको प्राप्त नहीं कर सकते, उनको बना नहीं सकते, उनमें परिवर्तन नहीं कर सकते। उनकी प्राप्ति के बाद भी ‘और मिले, और मिले’ यह कामना बनी रहती है अर्थात् अभाव बना रहता है। इस अभाव की कभी पूर्ति नहीं होती। इसलिये साधकको चाहिये कि वह इस सत्य को स्वीकार करे कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है।
मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तुको अपनी और अपने लिये न माननेसे मनुष्य निर्मम हो जाता है। निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली ही वस्तुओं का सदुपयोग सुगमता से होने लगता है। कारण कि निर्मम हुए बिना प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग नहीं हो सकता। ममता वाले मनुष्य के द्वारा प्राप्त वस्तुओं का दुरुपयोग ही होता है। भोग और संग्रह करना ही वस्तुओं का दुरुपयोग है और उनको दूसरों की सेवा में लगाना ही उनका सदुपयोग है। प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से समाज में संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोग से समाज में शान्ति की स्थापना होती है।
मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तुओं को अपना और अपने लिये मानना मनुष्य की भूल है। जब स्वयं चेतन तथा अविनाशी है तो फिर जड़ तथा नाशवान् वस्तु अपनी और अपने लिये कैसे हुई ? यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्य के द्वारा उत्पन्न की हुई (कृत्रिम) है। अपने विवेक को महत्त्व न देने से यह भूल उत्पन्न होती है। इस एक भूल से फिर अनेक तरह की भूलें उत्पन्न होती हैं। इसलिये इस मूल को मिटाना अत्यन्त आवश्यक है और इसको मिटाने की जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है। इसको मिटाने के लिये भगवान् ने मनुष्य को विवेक दिया है। जब मनुष्य अपने विवेक को महत्त्व देकर इस भूल को मिटा देता है, तब वह निर्मम हो जाता है।
निर्मम होना प्रत्येक साधक के लिये बहुत आवश्यक है; क्योंकि ममता को मिटाये बिना साधक की उन्नति नहीं हो सकती। इतना ही नहीं, जिसमें ममता की जाती है, वह वस्तु भी अशुद्ध हो जाती है और उसकी उन्नति में भी बाधा लग जाती है। ममता से मनुष्य में अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है।
क्रमश:
(कल्याण के तीन सुगम मार्ग’ पुस्तक से)
गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकशित.
विवेक की जागृति किसी क्रिया से नहीं होती, क्रिया रहित होने से होती है। विवेक को महत्त्व देने से विवेक ही तत्त्व-ज्ञान में परिणत हो जाता है। तात्पर्य है कि तत्त्व-ज्ञान किसी क्रिया या पदार्थ के द्वारा नहीं होता, अपने ही द्वारा होता है। जिसकी प्राप्ति अपने द्वारा होती है, उसके लिये किसी अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती। अभ्यास से तो उलटे वह दूर होता है! मनुष्य जिन करणों (मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ)‒से संसार को देखता है, उनसे अपने-आपको (करण-रहित सत्ता-मात्र स्वरूप को) नहीं देख सकता‒‘यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति’ (गीता ६/२०)। तात्पर्य है कि अपने-आपको किसी करण के द्वारा नहीं देखा जा सकता, करणों के त्याग से ही देखा जा सकता है।
जब तक साधक में अपने लिये कुछ भी करने का भाव रहता है, तब तक उसका सम्बन्ध कर्म-सामग्री के साथ अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि के साथ बना रहता है। जब तक शरीर के साथ सम्बन्ध रहता है, तब तक मनुष्य में न तो निःस्वार्थभाव आता है और न स्वाधीनता आती है अर्थात् वह न तो कर्मयोग का अधिकारी होता है, न ज्ञानयोग का। जो मनुष्य स्वार्थ भाव और पराधीनता से रहित नहीं हो सका, वह भगवान् का प्रेमी भी कैसे हो सकता है? इसलिये ‘क्रिया’ के आश्रय का त्याग करके विश्राम (कुछ न करने)- को अपनाना और ‘पदार्थ’ के आश्रय का त्याग करके स्वाश्रय अथवा भगवदाश्रय को अपनाना प्रत्येक साधक के लिये बहुत आवश्यक है।
जब साधक निर्मम और निष्काम हो जाता है, तब उसकी अहंता मिट जाती है। अहंता मिटने पर फिर उसके लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता‒‘निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २/७१)। जब तक साधक अपने लिये कुछ भी करता है, तब तक उसका सम्बन्ध क्रिया और पदार्थ से बना रहता है। जब तक क्रिया और पदार्थ से सम्बन्ध है, तब तक पराधीनता है। क्रिया और पदार्थ संसार की सेवा के लिये तो उपयोगी हैं, पर अपने लिये इनका त्याग ही उपयोगी है। सेवा और त्याग कृत्रिम नहीं हैं, स्वतः-स्वाभाविक हैं। इसलिये मैं सेवा करता हूँ अथवा मैं त्याग करता हूँ‒ऐसा अभिमान करना भूल है। जब संसार में मेरी कोई वस्तु है ही नहीं तो त्याग क्या हुआ? और जिसकी वस्तु थी, वह उसको दे दी तो सेवा क्या हुई? यह सिद्धान्त है कि जो कभी भी अलग होगा, वह अभी भी अलग है। इसलिये नित्य निवृत्तिकी ही निवृत्ति होती है और नित्य प्राप्त की ही प्राप्ति होती है‒इस सत्य को स्वीकार करना साधक के लिये आवश्यक है।
जप, तप, व्रत, तीर्थ, स्वाध्याय आदि क्रिया साध्य साधनों से कामना का नाश नहीं होता। कारण कि कोई भी क्रिया (अभ्यास) करने के लिये शरीर की सहायता लेनी पड़ती है और शरीर के सम्बन्ध से ही कामनाओं की उत्पत्ति होती है। अतः कामना का नाश किसी क्रिया से नहीं होता, वरन सर्वथा क्रिया रहित होने से तथा विवेक को महत्त्व देने से होता है। क्रियारहित होते ही शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होकर स्वरूप में स्थिति स्वतः होती है। स्वरूप में निर्ममता और निष्कामता स्वतःसिद्ध हैं। अतः शरीर-संसार के सम्बन्ध से होने वाले ममता, कामना आदि दोषों का नाश करने के लिये क्रिया और पदार्थ से सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है।
जब कर्ता निष्काम होता है, तब उसके द्वारा स्वतः कर्तव्य-कर्मका पालन होने लगता है। कर्ता निष्काम हुए बिना कर्तव्य-कर्मका पालन नहीं होता और कर्तव्य-कर्मका पालन हुए बिना प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग नहीं होता। सकाम मनुष्य प्राप्त परिस्थिति के अधीन हो जाता है तथा अप्राप्त परिस्थिति का चिन्तन करता रहता है। परन्तु निष्काम होते ही मनुष्य प्राप्त परिस्थिति की पराधीनता तथा अप्राप्त परिस्थिति के चिन्तन से छूटकर परिस्थति से अतीत तत्त्व को प्राप्त कर लेता है।
कामना की पूर्ति में तो सब मनुष्य पराधीन हैं, पर कामना का त्याग करने में सब-के-सब मनुष्य स्वाधीन और समर्थ हैं। प्रत्येक मनुष्य स्वाधीनता पूर्वक मुक्ति की प्राप्ति कर सकता है। परन्तु जब तक मनुष्य के भीतर कामना रहती है, तब तक वह स्वाधीन नहीं हो सकता। पराधीनता का सर्वथा नाश निष्काम होने पर ही सम्भव है। निष्काम होने पर साधक संसार पर विजय प्राप्त कर लेता है। कारण कि कामना वाले मनुष्य को कइयों के अधीन होना पड़ता है, पर जिसको कुछ नहीं चाहिये, उसको किसी के भी अधीन नहीं होना पड़ता। उसका मूल्य संसार से अधिक हो जाता है। वह तीनों योगों का अधिकारी बन जाता है। इतना ही नहीं, वह भगवत्प्रेम का भी पात्र बन जाता है; क्योंकि कामना वाला मनुष्य किसी से प्रेम नहीं कर सकता।
प्रत्येक साधक के लिये निष्काम होना बहुत आवश्यक है; क्योंकि निष्काम हुए बिना साधक अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, कामना के कारण वह साध्य रूप भगवान् को भी कामना पूर्ति का साधन बना लेता है। तात्पर्य है कि वह कोई भी कामना रख-कर भगवान् का भजन करता है तो उसका साध्य तो वह काम्य पदार्थ होता है और भगवान् उसकी प्राप्ति के साधन होते हैं। जब तक कामना रहती है, तब तक मनुष्य पराधीन रहता है। पराधीन मनुष्य न तो त्याग कर सकता है, न सेवा कर सकता है और न प्रेम ही कर सकता है। वह न तो ज्ञानयोगी बन सकता है, न कर्मयोगी बन सकता है और न भक्तियोगी ही बन सकता है। अतः पराधीनता को मिटाने के लिये निष्काम होना बहुत आवश्यक है।
मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तुओं में ‘मैं’-पन और ‘मेरा’-पन होने से ही कामनाओं की उत्पति होती है। सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति आज-तक किसी की नहीं हुई, न होगी और न हो ही सकती है। जिन कामनाओं की पूर्ति होती है, वे भी परिणाम में दुःख ही देती हैं। कारण कि एक कामना की पूर्ति होने पर दूसरी अनेक कामनाएँ पैदा हो जाती हैं, जिससे कामना आपूर्ति का दुःख ज्यों-का-त्यों बना रहता है। मनुष्य समझता है कि कामना की पूर्ति होने पर मैं स्वतन्त्र हो गया, पर वास्तव में वह काम्य पदार्थ के पराधीन हो जाता है परन्तु प्रमाद के कारण वह पराधीनता में भी सुखका अनुभव करता है। मनुष्य को इस पराधीनता से छुड़ाने के लिये भगवान् के मंगलमय विधान से दुःख आता है परन्तु मनुष्य दुःख से दुःखी होकर भगवान् के मंगलमय विधान की भी अवहेलना कर देता है। अगर वह दुःख से दुःखी न होकर दुःख के कारण की खोज करे और सम्पूर्ण दुःखों के कारण ‘कामना’ को मिटा दे तो वह सदाके लिये सुखी हो जायगा।
मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु को अपनी और अपने लिये न मानने से मनुष्य निर्मम हो जाता है। निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली ही वस्तुओं का सदुपयोग सुगमता से होने लगता है कारण कि निर्मम हुए बिना प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग नहीं हो सकता। ममता वाले मनुष्य के द्वारा प्राप्त वस्तुओं का दुरुपयोग ही होता है। भोग और संग्रह करना ही वस्तुओं का दुरुपयोग है और उनको दूसरों की सेवा में लगाना ही उनका सदुपयोग है। प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से समाज में संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोग से समाज में शान्तिकी स्थापना होती है।
संसार का स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ। क्रिया और पदार्थ‒दोनों ही आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं। प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है। मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है। जो मिली है और बिछुड़ जायगी, उसका उपयोग केवल संसार की सेवा में ही हो सकता है। अपने लिये उसका कोई उपयोग नहीं है। कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है। जो वस्तु अपनी नहीं होती, वह अपने लिये भी नहीं होती। अपनी वस्तु वह होती है, जिस पर हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिये वस्तु वह होती है, जिसको पाने के बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहे परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि मिली हुई वस्तुओं पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता। हम अपनी इच्छा के अनुसार उनको प्राप्त नहीं कर सकते, उनको बना नहीं सकते, उनमें परिवर्तन नहीं कर सकते। उनकी प्राप्ति के बाद भी ‘और मिले, और मिले’ यह कामना बनी रहती है अर्थात् अभाव बना रहता है। इस अभाव की कभी पूर्ति नहीं होती इसलिये साधक को चाहिये कि वह इस सत्य को स्वीकार करे कि मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है।
मनुष्य-मात्र को ‘मैं हूँ‒इस रूप में अपनी एक सत्ता का अनुभव होता है। इस सत्ता में अहम् (‘मैं’) मिला हुआ होने से ही ‘हूँ’ के रूप में अपनी एक-देशीय सत्ता अनुभव में आती है। यदि अहम् न रहे तो ‘है’ के रूप में सर्व-देशीय सत्ता ही अनुभव में आयेगी। वह सर्व-देशीय सत्ता ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उस सत्ता में अहम् (जड़ता) नहीं है। जब मनुष्य अहम् को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता (‘है’) को स्वीकार करता है, तब वह मुक्त हो जाता है।
मनुष्य-मात्र के भीतर बीजरूप से एक तो मुक्ति (अखण्ड आनन्द) की माँग रहती है, दूसरी दुःख-निवृति की माँग रहती है और तीसरी परम-प्रेम की माँग रहती है। मुक्ति की माँग (स्वयं की भूख) ज्ञान-योग से, दुःख-निवृत्ति की माँग कर्मयोग से और परम-प्रेम की माँग भक्ति योग से पूरी होती है। अगर साधक में अपने साधन का आग्रह, पक्षपात न हो तो एक माँग की पूर्ति से तीनों माँगें पूर्ण हो जाती हैं।
ज्ञानमार्ग.
जगत्, जीव और परमात्मा इन तीनों के सिवाय अन्य कोई नहीं है। गीता में इन तीनों का विभिन्न नामों से वर्णन हुआ है; जैसे‒परा, अपरा और भगवान्; क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम आदि। इन तीनों में जगत् और जीव‒ये दोनों विचारके विषय होने से‘लौकिक’हैं परन्तु परमात्मा विचार का विषय न होने से ‘अलौकिक’हैं । इन तीनों में जीव को लेकर ज्ञानयोग, जगत् को लेकर कर्मयोग और परमात्मा को लेकर भक्तियोग चलता है, इसलिये ज्ञानयोग तथा कर्मयोग‒ये दोनों ‘लौकिक साधन’ हैं और भक्तियोग ‘अलौकिक साधन’ है। लौकिक साधन से मुक्ति होती है और अलौकिक साधन से परम-प्रेम की प्राप्ति होती है।
मनुष्य मात्र को ‘मैं हूँ’‒इस रूप में अपनी एक सत्ता का अनुभव होता है। इस सत्ता में अहम् (‘मैं’) मिला हुआ होने से ही ‘हूँ’ के रूप में अपनी एकदेशीय सत्ता अनुभव में आती है। यदि अहम् न रहे तो ‘है’ के रूप में सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभव में आयेगी। वह सर्वदेशीय सत्ता ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उस सत्ता में अहम् (जड़ता) नहीं है। जब मनुष्य अहम् को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता (‘है’) को स्वीकार करता है, तब वह मुक्त हो जाता है।
संसार का स्वरूप है‒क्रिया और पदार्थ। क्रिया और पदार्थ‒दोनों ही आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं। प्रत्येक क्रिया का आरम्भ और अन्त होता है। प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश होता है। मात्र जड़ वस्तु मिली है और प्रतिक्षण बिछुड़ रही है। जो मिली है और बिछुड़ जायगी, उसका उपयोग केवल संसार की सेवा में ही हो सकता है। अपने लिये उसका कोई उपयोग नहीं है। कारण कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु अपनी नहीं होती‒यह सिद्धान्त है। जो वस्तु अपनी नहीं होती, वह अपने लिये भी नहीं होती। अपनी वस्तु वह होती है, जिस पर हमारा पूरा अधिकार हो और अपने लिये वस्तु वह होती है, जिसको पाने के बाद फिर कुछ भी पाना शेष नहीं रहे। परन्तु यह हम सबका अनुभव है कि शरीरादि मिली हुई वस्तुओं पर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता। हम अपनी इच्छा के अनुसार उनको प्राप्त नहीं कर सकते, उनको बना नहीं सकते, उनमें परिवर्तन नहीं कर सकते। उनकी प्राप्ति के बाद भी ‘और मिले, और मिले’ यह कामना बनी रहती है अर्थात् अभाव बना रहता है। इस अभाव की कभी पूर्ति नहीं होती। इसलिये साधकको चाहिये कि वह इस सत्य को स्वीकार करे कि मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तु मेरी और मेरे लिये नहीं है।
मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तुको अपनी और अपने लिये न माननेसे मनुष्य निर्मम हो जाता है। निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली ही वस्तुओं का सदुपयोग सुगमता से होने लगता है। कारण कि निर्मम हुए बिना प्राप्त वस्तुओं का सदुपयोग नहीं हो सकता। ममता वाले मनुष्य के द्वारा प्राप्त वस्तुओं का दुरुपयोग ही होता है। भोग और संग्रह करना ही वस्तुओं का दुरुपयोग है और उनको दूसरों की सेवा में लगाना ही उनका सदुपयोग है। प्राप्त वस्तुओं के दुरुपयोग से समाज में संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोग से समाज में शान्ति की स्थापना होती है।
मिली हुई और बिछुड़ने वाली वस्तुओं को अपना और अपने लिये मानना मनुष्य की भूल है। जब स्वयं चेतन तथा अविनाशी है तो फिर जड़ तथा नाशवान् वस्तु अपनी और अपने लिये कैसे हुई ? यह भूल स्वतः-स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत मनुष्य के द्वारा उत्पन्न की हुई (कृत्रिम) है। अपने विवेक को महत्त्व न देने से यह भूल उत्पन्न होती है। इस एक भूल से फिर अनेक तरह की भूलें उत्पन्न होती हैं। इसलिये इस मूल को मिटाना अत्यन्त आवश्यक है और इसको मिटाने की जिम्मेवारी मनुष्य पर ही है। इसको मिटाने के लिये भगवान् ने मनुष्य को विवेक दिया है। जब मनुष्य अपने विवेक को महत्त्व देकर इस भूल को मिटा देता है, तब वह निर्मम हो जाता है।
निर्मम होना प्रत्येक साधक के लिये बहुत आवश्यक है; क्योंकि ममता को मिटाये बिना साधक की उन्नति नहीं हो सकती। इतना ही नहीं, जिसमें ममता की जाती है, वह वस्तु भी अशुद्ध हो जाती है और उसकी उन्नति में भी बाधा लग जाती है। ममता से मनुष्य में अनेक दोषों की उत्पत्ति होती है।
क्रमश:
(कल्याण के तीन सुगम मार्ग’ पुस्तक से)
गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकशित.
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